भारतीय शिक्षा सिद्धान्त | Bhartiya Shiksha Siddhant

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Bhartiya Shiksha Siddhant by सुबोध अदावाल - Subodh Adawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारतीय शिक्षा पिद्धान्त | [ अध्याय ? द सर्गिक हो जाती है। पाठशाला आदि में प्रायः सविधिक शिक्षा देखने में आती है, किन्तु यात्रा, साइचर्य आदि के द्वारा अविधिक शिक्षा प्रास होती है। तभी कहा गया है कि अपनी चरम स्थित में सविधिक शिक्षण के विषय जीवन के अनुभवों से रहित भी हो. सकते हैं; इसके विषय-यची के परिद्दढ हो जाने की आशंका रहती है | इसीलिए डीवी ने हमें सविधिक शिक्षा के अन्तनिहित इस भय से सावधान रहने का आदेश दिया है। यहा नहीं, शिक्षक बालक के सम्बन्ध, शिक्षा-सामग्ी के प्रयोग, शिक्षण-प्रणाली आदि में भी यथेष्ट कृत्रिमता तथा जीवन से दूरी आर जाती है ।” शिक्षा का एक सामान्य विशिष्ट रूप भी होता है । बालक को सामान्य जीवन के लिए मूल रूप में तैयार करने वाली शिक्षा सामान्य शिक्षा कहलाती है। इसे उदार शिक्षा भी कहा जाता है| इसके द्वारा बालक को किसी विशिष्ट व्यव- साय की शिक्षा न देकर केवल सफल जीवन की प्रारम्मिक शिक्षा दी जाती है ओर उसे जीवन के सब विभागों के लिए समान रूप से थोड़ा-बहुत तैयार किया जाता है | परन्तु जो शिक्षा एक विशिष्ट लक्ष्य को लेकर बालक को एक निश्चित व्यवसाय के लिए तैयार करती है उसे विशिष्ट शिक्षा कहते हैं | सामान्य शिक्षा द्वारा बालक में तत्परता, परिस्थिति-ठपयोजन की क्षमता एवम्र उपयोजन-शीलता का ग्रादुर्भाव! होता है, ओर विशिष्ठ शिक्षा द्वारा उसे एक निश्चित ज्षेत्र में दक्षुता प्राप्त होती है । बालक पर पड़ने वाले शिक्षक के प्रभाव के अनुसार भी शिक्षा के दो रूप हो जाते हैं जिन्हें परोक्ष तथा अपरोक्ष शिक्षा कहते हैं। 'शिक्षुक के व्यक्तित्व का जो तत्का- लीन प्रभाव शिष्यों पर पड़ता है उसे अपरोक्षु शिक्षा कह्य जाता है। यह प्रभाव शिक्षक तथा शिष्य के परस्पर सम्पक द्वारा शिष्य पर पड़ता है। जब यह सम्पक-जनित शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव क्षण हो जाता है अ्रथवा जब शिष्यों को प्रभावित करने के लिए शिक्षक को किसी वाह्य साधन का आश्रय लेना पड़ता है तब शिक्षा परोक्ष कहलाती है।” अस्त्यात्मक शिक्षा में शिक्षक बालकों पर निश्चित प्रयोगों द्वारा विशेष प्रभाव डालने का प्रयल करता है ! शिक्षुक यह जानता है कि बालक को कहाँ तक ले जाना हे तथा इसके लिए वह निश्चयात्मक रूप से विशिष्ट प्रयत्न करता है। किन्तु जब शिक्षक बालक के विषय में बिना किसी पूर्व-नेश्चित घारणा के केवल उसका मार्ग स्वच्छ करता चलता है तो उसे नास्त्यात्मक शिक्षा कहते हैं । इस प्रकार की शिक्षा में बलके अपनी इच्छा के अनुसोर अपने व्यक्तित्व का प्रस्कुटन करता है। शिक्षक अपने इच्छानुसार उसे ढालने का प्रयतत नहीं करता | रूसों द्वारा प्रतिपादित शिक्षा- सिद्धान्त इसी प्रकार के रै | 5 বি প




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