भारतीय सृष्टिक्रम-विचार | Bhartiya Srishtikram-Vichar

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bhartiya Srishtikram-Vichar by श्री सम्पूर्णनंद - Shree Sampurnnand

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री सम्पूर्णानन्द - Shree Sampurnanada

Add Infomation AboutShree Sampurnanada

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
ऋग्वेद में सष्टिक्रम ५ भूत में समा जाते हैं और सूच्रमभूत मन के साथ अहंकार में लीन हे जाता है। अतः बे लोक भी, जो मानस तत्त्व से निमित है, विलीन हो जते है । जीवों के कर्मा का क्षय तो नहीं होता पर तु कमे और भोगभूमि के अभाव से उनके संस्कार बुद्धि के पटलों में टिक जाते हैं और जीव प्रसुप्त सी दशा को प्राप्त हो जाते हैं। यही प्रत्ययावस्था है। काल पाकर ये संस्कार फिर जागते हैं और इनके अनुसार नए ब्रह्मांड का सजन आवश्यक हो जाता है। जीवों के कमसंस्कारों का योग नूतन जगत्‌ की सृष्टि का प्रवतेक होता है। इस विषय का चर्चा आगे चल्षकर भी होना है। इसलिये यहाँ विस्तार के साथ दुहराना टीक नहीं प्रतीत होता| इस संक्षिप्त रूपरेखा में इस गंभीर विषय का यथोचित वर्णन नहीं हो सकता । मेंने तक न करके केवल एक चित्र खींच देने का प्रयत्न किया है। उदेश्य इतना ही था कि मंत्रों के भाव को समभने में सुविधा हो और जिस पीठिका के सामने इस विषय का अध्ययन होना चाहिए उसका कुछ परिचय हो जाय। इतनी आशा अवश्य करता हूँ कि मेंने अपनी जानकारी में सूक्त के अथे और वेदांत या सांख्य के सिद्धांतों को वितथ रूप से नहीं दिखलाया है । एक शंका का और समाधान करना आवश्यक है। कुछ लोग यह आपत्ति करते है कि जब यह जगत्‌ मिथ्या, मायामय है तो फिर पढ़ना, लिखना, योग, तप, दान या किसी अन्य प्रकार का प्रयत्न करना व्यर्थं है | उनको सोचना चाहिए कि जिन आचार्यो ने जगत्‌ को मायामय बतलाया है उन्दने अभ्युदय रौर निःश्रेयस के लिये श्रनेक प्रकार के अनुष्ठाना का भी विधान किया है। दोनों बातों में जो विरोध है वह तो उनकी भी समम में आना चाहिए था। बात यह है ि वस्तुतः विरोध नहीं, विरोधा- भास है। जगत्‌ को मिथ्या मिथ्या कहने मात्र से उसका सिथ्यात्व प्रतीत नहीं होता । तक करने से ब्रह्म के स्वरूप के संबंध में शासत्राथ तो किया जा सकता है, पर साज्ञात्कार नहीं हो सकता और जब तक साक्षात्कार नहीं होता तब तक सच्चा ज्ञान नदीं हो सकता । रागद्वेष का पुतला “अहं बह्मास्मिः कहकर मुक्त नहीं हो. सकता और न माया को कोसने से उसके जाल से




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now