हिंदी वैष्णव साहित्य में रस-परिकल्पना | Hindi Vaishnav Sahitya Mein Ras Parikalpna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ हिन्दी वैष्णव-माहिल्य मे रम-परिकन्पना शब्द अपने लिए विदेशी अर्थ से युक्त नही है। इसके मूल धात्वर्थ को ध्यान मे रखते हुए “रस- परिकल्पना! का मुख्य अर्थ हुआ काव्य में कवि द्वारा रस-सृप्टि | इस प्रकार वैष्णव-काव्य में रस- परिकल्पना के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य हुआ इस काव्य मे यह देखना कि कवि ने किस दृष्टि से, किस रस-तत्त्व की, किस रूप मे तथा किस ढग से सृप्टि की है ? किल्‍्तु काव्य-निष्ठ कबि-क्ृत रस-परिकल्पना यदि सहूदय-निरयेक्ष है तौ उसका कोई अथं नही । अत पूर्वोक्तं निर्मानु-पक्ष के साथ रस का भोग-पक्ष भी रस-परिकल्पना मे आनुषगिक रूप से अध्येय हो जाता है । वैष्णव- साहित्य मे निहित रस-परिकल्पना का हमे इन्ही दोनो दुप्टियो से, अर्थात्‌ रस-विधान के निर्माण- पक्ष को प्रमुख बनाकर भोक्तृ-पक्ष की सपिक्षता मे रखने हुए अध्ययन करना है । इसी विशिष्ट दृष्टि से हमारा अध्येय विक्रम की सोक्हवी-सव्हवी णती ऋ हिन्दी वैष्णव साहित्य है। विक्रम की ये शतिया हिन्दी के विविध भक्ति-काव्य के कारण साहित्य के इलिहास मे अपना विशिष्ट स्थान रखती है। उक्त रस-दुप्टि से यह समूचा भक्ति-साहित्य इस शोध का विवेच्य विषय नही है । जैसा कि हम अभी विचार करेगे, इसकी परिधि में केवल राम-भक्ति एवं कृष्ण-भक्ति का सगुण काव्य ही आता है। प्रेम-मार्गी सूफी काव्य एव निर्गृण सन्न-काव्य दोनो इसकी परिधि मे नहीं आते । प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध मे इसी दृष्टिकोण से अपने काल के उक्त माहित्य का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । यहा इस अध्ययन की प्रस्तावना के रूप मे कुछ बाते निवेदन करनी है जिनसे इस शोध-प्रबन्ध मे किये गये अध्ययन की दिभा, परिधि एवे दुष्टिकोण स्ष्ट हो सकं । ग्रालोच्चकालीन हिन्दी वेष्णब साहित्य सक्षिप्त परिचय, वर्गीकरण एवं रस-परिकत्पना के लिए अध्येय साहित्य का चयन सोरहवी-सव्रहवी शती हिन्दी साहित्य के किए स्वर्ण-युग है । यद्यपि ठस युगं करा वैष्णवेतर साहित्य भी मात्रा मे नगण्य नहीं है, तथापि वंष्णब साहित्य ही इस युग का प्राण एव प्रतिनिधि साहित्य है । इस युग के वैष्णव साहित्य को प्रभावित करने वाले प्रेरणा-त्रोत कई दिशाओं से प्रवाहित होकर आते है, इसीलिए यह साहित्य मूलत भक्ति-साहिन्य होते हुए भी विविध-ग्मी हो गया है। इस युग की भक्ति-भावना प्राय सम्प्रदाय-निष्ट होकर प्रसृत हुई है । कई सम्प्रदाय पहले से ही पूर्ण प्रतिष्ठित हो चुके थे, कई इस युग में प्रवर्तित हुए। यो तो इस युग के कई कवि इस प्रकार के है जिन्हे या तो किसी सम्प्रदाय का अनुयायी नही कहा जा सकता, था जिनका सम्बन्ध एकाधिक सम्प्रदायो से जोडा जा सकता है, तथापि इन शर्तियों का साहित्य एक बड़ी दूरी तक सम्प्रदाय-चेतना को स्वीकार करके चला है। इसी कारण इस युग के साहित्य का अनुशीकृन उसकी मूल सम्प्रदाय-चेतना के सापेक्ष्य में ही उचित भी होता है, सरल भी । इस युग में प्रचलित प्रमुख वैष्णव सम्प्रदाय निम्नलिखित है . १ रोमानूज सम्प्रदाय माध्व सम्प्रदाय निम्बारक सम्प्रदाय वल्छभ सम्प्रदाय चैतन्य सम्प्रदाय हरिदासी सम्प्रदाय न তরি ৫ ९४ লহ




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