मनुष्य जीवनके कर्तव्य | Manushya Jeewanke Kartavya

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Manushya Jeewanke Kartavya  by सूरजमल जैन - Soorajmal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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° ऋण । ९. ज. क समझते कि यह दोष हमारा-हमारी आदतोंका है जिनके कारण हम अपनी स्थितिपर असंतुष्ट हो रहे हें । यदि आज ये आदतें नहीं 'पड़ी होतीं तो हमें किसी भी बातकी आवश्यकता नहीं थी । -सादगीसे जीवनका व्यवहार चढाया जा सकता था। सार यह है कि आदतें किसी भी हाल्तमें अच्छी नहीं कही जातीं। सदाचरणी मनुष्य वही है ओर उसी मतप्यक्रा चरित्र गठन हुआ समझना चाहिये जो आदतोंका गुढाम नहीं होता ओर समयको देखकर शुभ कार्येसि अपने जीवनके रथकों खींचता हुआ छे जाता है, जिसके कार्येसति संत्ताके किसी भी प्राणीको, विशेष कर उप्तकी समाजक्रो-मानव सप्राजक्रों उप्तके कार्योकी टक्कर नहीं खाना पड़ती । अतएव मनुष्यमा्रका कर्तव्य है कि वे आदर्तोके गाम न होकर आदर्तोको गुछाम बनावें ओर समयानुकूछ उनसे कार्य के। अपने “चरित्रका मूल्य आदतोंपर अवर्ूंबित न होने दें किंतु चरित्रपरसे आदतोंका मूल्य निधारित करनेका समय द्‌ । व्रदण ॥ .. आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये दूसरोंसे नो वस्तु कुछ नियत -समयमें वापिस कर देनेकी शर्तपर छी जाती है उसे ऋण कहते हैं ।ऋण न केवल रुपयों पेसोंका ही होता है किन्तु प्रत्येक वस्तुका जो हम दूसरोंसे वापिस करदेनेकी शर्तपर लेते हैं; होता है। ऋण तीन प्रकारका होता हैं। एक अनुत्पादक ऋण, दूसरा उत्पादक जऋण, तीसरा साघारण ऋण । अचुत्पादक ऋण वह होता है जो




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