प्राचीन कवियों की काव्य-साधना | Pracheen Kaviyon Ki Kavya Sadhna
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
51 MB
कुल पष्ठ :
432
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१० प्राचीन कवियों की काव्य-साधना
“एक कहो तो है नहीं दोय कहो तो गारि।
है जैसा तैसा रदे, कहै कवीर विचारि ॥!
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ज्यों तिल माही तेल है, ज्यो चकमक भें आगि।
तेरा साई तुज्क में, जागि सके तो जागि ॥?
>< ১৫ ><
“आतम मे परमातम दरसै, परमातम मे आदं
कादं भे पराई दरस, लसै कवीरा सादरं
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“बीज मध्य ज्यों वृच्छा दरसे, बृच्छा मद्धे छाया।
परमातम मे आतम तेसे, आतम मर्द साया ॥*
১৫ >< ><
शुप्च प्रकट है एकै सुद्रा । काको कहिए बाह्मन-सुद्रा ।
भट गरब भूले मत कोई । हिन्दु तुरक शूट कुल दोडई ॥'
यही आध्यात्मिक रस कबीर की वाणी का श्रुज्ञार हे और इसी रस
से उनका सारा जीवन ओत-प्रोत है | इसमें सुधार की प्रवृत्ति है अवश्य,
पर वह समष्टि की ओर उन्म्रुख न होकर व्यष्टि की ओर है। कबीर व्यक्ति
को संबोधित करके कहते थे, समाज को संबोधन करके नहीं। उनके पास
सबसे कहने के लिए एक बात थी और वह थी :--
“लोगा भरमिन भूलह भाई !
खालिकु खलकु, खलकु महिं खालिकु पूरि रह्मो सब खाई ।
मायी एक अनेक भांति कर, साजी साजनहारे ॥
न कचु पोच मांटी के भांडे, न कु पोच कुम्हारे।
सब महिं सच्चा एको सोई, तिसका कीआ सब कुछ होई 1?
इसे कोई माने तो वाह-वाह, न माने तो वाह वाह ! कबीर मस्त
मोला थे। दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे मुडकर देखने की उन्हें फुसत नही थी |
कोई दल बनाकर, कोई सम्प्रदाय खड़ा कर चलनेवालों में वह नहीं थे |
कोई उनके पीछे चले या न चले, इसकी चिन्ता उन्होंने नहीं की | अपनी
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