प्राचीन कवियों की काव्य-साधना | Pracheen Kaviyon Ki Kavya Sadhna

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Pracheen Kaviyon Ki Kavya Sadhna  by धीरेंद्र वर्मा - Dhirendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० प्राचीन कवियों की काव्य-साधना “एक कहो तो है नहीं दोय कहो तो गारि। है जैसा तैसा रदे, कहै कवीर विचारि ॥! >< >< >< ज्यों तिल माही तेल है, ज्यो चकमक भें आगि। तेरा साई तुज्क में, जागि सके तो जागि ॥? >< ১৫ >< “आतम मे परमातम दरसै, परमातम मे आदं कादं भे पराई दरस, लसै कवीरा सादरं ৮৫ ৮ ৮ “बीज मध्य ज्यों वृच्छा दरसे, बृच्छा मद्धे छाया। परमातम मे आतम तेसे, आतम मर्द साया ॥* ১৫ >< >< शुप्च प्रकट है एकै सुद्रा । काको कहिए बाह्मन-सुद्रा । भट गरब भूले मत कोई । हिन्दु तुरक शूट कुल दोडई ॥' यही आध्यात्मिक रस कबीर की वाणी का श्रुज्ञार हे और इसी रस से उनका सारा जीवन ओत-प्रोत है | इसमें सुधार की प्रवृत्ति है अवश्य, पर वह समष्टि की ओर उन्म्रुख न होकर व्यष्टि की ओर है। कबीर व्यक्ति को संबोधित करके कहते थे, समाज को संबोधन करके नहीं। उनके पास सबसे कहने के लिए एक बात थी और वह थी :-- “लोगा भरमिन भूलह भाई ! खालिकु खलकु, खलकु महिं खालिकु पूरि रह्मो सब खाई । मायी एक अनेक भांति कर, साजी साजनहारे ॥ न कचु पोच मांटी के भांडे, न कु पोच कुम्हारे। सब महिं सच्चा एको सोई, तिसका कीआ सब कुछ होई 1? इसे कोई माने तो वाह-वाह, न माने तो वाह वाह ! कबीर मस्त मोला थे। दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे मुडकर देखने की उन्हें फुसत नही थी | कोई दल बनाकर, कोई सम्प्रदाय खड़ा कर चलनेवालों में वह नहीं थे | कोई उनके पीछे चले या न चले, इसकी चिन्ता उन्होंने नहीं की | अपनी




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