परमार्थवचनिका प्रवचन | Parmarthvachnika Prawachan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Parmarthvachnika Prawachan by डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल - Dr. Hukamchand Bharill

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल - Dr. Hukamchand Bharill

Add Infomation About. Dr. Hukamchand Bharill

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
संसारावस्थित जीव की अवस्था ] की पाँच सौ धनुष की अवगाहना होती है; तथा “कोई एकावतारी कोई तद्भव मोक्षगामी और कोई अधंपुद्गल परावतेन तके ' भ्रमण करनेवाला भी हो सकता है - इसप्रकार अनेक प्रकार की विचित्रता होती है । संसार में किन्ही दो जीवों के परिणामों मे कदाचित्‌ किसी विशिष्ट प्रकार की अपेक्षा तो समानता हो सकती है, परन्तु सवेप्रकार से समानता कभी नहीं होती । सर्वेश्षकथित जिनमार्ग में जिसे श्रास्था हो, उसी के हृदय में यह बात जम सकती है इस वचनिका के श्रन्त में पं० बनारसीदासजी स्वयं कहते है कि यह वचनिका यथायोग्य सुमति-प्रमाण केवली- वचनांनुसार है । जो जीव इसे सुनेगा, समभंगा तथा श्रद्धान करेगा, उसका यथायोग्य भाग्यानुसार कल्याण होगा । , केवलीवचनानुसार' कहने का तात्पयं यह्‌ है कि इसे समभे के लिए केवली भगवान की श्रद्धा होना परम आवश्यक है। जिसको केवली भगवान सर्वेज्ञदेव की श्रद्धा नहीं है, उसे यह परमार्थवचनिका भी समझ में नहीं आ सकती । ' संसार मेँ श्रनन्त जीव हैं, अ्रनन्तानन्त पुदूगलपरमाणु है; सभी अपने-अपने गुण-पर्यायों सहित विराजमान है; तथा प्रत्येक के परिणाम भिन्न-भिन्न प्रकार के है। किसी के भी परिणाम शअ्रन्य के साथ समानता नही रखते - यह सिद्धान्त बतलाया । अब उन जीव और पुद्गलों की भिन्न-भिन्न अवस्था का विशेष वरेन करते है - 'अब, जीवद्रव्य पुदगलद्वव्य एकक्षेत्रावगाही श्रनादिकाल के है, उनसें विशेष इतना कि जीवद्रव्य एक, पुद्गलपरमाणुद्रव्य भ्रनन्‍्तानन्त, चलाचलरूप, भ्रागमनगसनरूप, श्रनंताकारपरिणमनरूप, बन्ध-सुक्ति शक्तिसहित वतते है !




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now