सम्पूर्ण गांधी वाड्मय (भाग - ०१) | Sampurna Gandhi Vaangmay, Vol-01

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Sampurna Gandhi Vaangmay, Vol-01 by शांतिलाल हरजीवन शाह - Shantilal Harijivan Shaah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्तेरह दी जायेगी। विभिन्न वर्गकी सामग्रीको विभिन्न ग्रंथमालाओमें प्रकाशित करनेके बदले इस व्यवस्थाको पसन्द करनेका मुख्य कारण यह है कि वेसा पृथक्करणं छृत्रिम होता 1 गाघीजीने अकसर किसी एकं ही विषयकी चर्चा एक अवधि विशेषके अपने ठेखो, भाषणो ओर पतो --सव्मे कौ है। वे जीवनको समूचे रूपमे देखते थे, अलग-अलग विभागोमं नही । अपने विचार प्रकट करनेका जो भी माष्यम--लेख, भाषण या पत्र -- उन्होने चुना, उसके कारण उनके विचारोमें कोई अन्तर नही पडा । अगर ये सब एक ही पुस्तकें एक-दूसरेके साथ ठीक तिथि-क्रमसे रखे जायें तो पाठकोकों अधिक पूणं चित्र मिलेगा कि गाधीजी कंसे काम करते थे गौर कंसे विभिन्न प्रद्नोको, जैसे-जैसे वे उठते, निवटाया करते थे। ऐसा होनेपर ये पुस्तके गाघीजीके उस मानसके बैसवको प्रकट करेगी, जो भारी सार्वजनिक महत्त्वके प्रश्नोका निर्वाह करते हुए भी व्यक्तियोकी गहरी निजी समस्याआोमें कम निरत नही रहता था। उन्हे एक स्वतन्त्र ग्रंथमालामें प्रकाशित कर देनेकी अपेक्षा व्यक्तिगत पत्रोकों सार्वजनिक प्रशनोसे सम्बन्ध रखनेवाकी सामग्रीके वीच रखनेसे गावीजीके व्यक्तित्वकी छवि अधिक सच्ची गौर पूर्ण रूपमें प्राप्त होती है। ग्रंथभालाका उद्देश्य यह है कि जहाँतक सम्भव हो, ग्राघीजीके मूल शब्द ही प्रकाशित किये जायें। इसलिए उनके भाषणो, मुलाकातों और चर्चाओकी वे रिपोर्ट छोड़ दी गई है, जो प्रामाणिक नहीं मालम हुईं। उनके कथनोकी परोक्ष रिपोर्ट भी शामिल नहीं की गईं। तथापि, जहाँतक भाषणोका सम्बन्ध है, उनकी ऐसी रिपोर्ट ले ली गई है, जिनकी प्रामाणिकता सन्देहके परे थी। यदि किसी भाषणकी प्रत्यक्ष रिपोर्ट छापी ही नहीं गई या यदि किसीसे ऐसी जानकारी मिलती है जो दूसरे रूपमें उपलब्ध ই ही नही, तो उसकी भी परोक्ष रिपोर्ट शामिक्त कर ली गईं है। गांधीजीने जो कागजात या पत्र खालिस तौरपर अपने पेशेके .सिलसिलेमें वेरिस्टरकी हैसियतसे लिखें थे और जो कागज-पत्र बिलकुल नित्य जीवनके ढरेके थे तथा जिनका जीवन- चरित-सम्वन्धी कोई महत्त्व नही था, उन्हे मी छोड़ दिया गया है। इस आयोजनका आरम्भ फरवरी १९५६ में किया गया था। इसके सूत्रपातका श्रेय श्री पुरुषोत्तम मगेश लाडको है, जो उस समय भारत सरकारके सूचना और प्रसारण मत्नालयके सचिव थे और जिन्न, माचं १९५७ में अपनी असामयिक मृत्युके पूवे, इस कार्यकी नीव रखनेमें मदद की थी। ग्रंथभाकाका नियन्त्रण और निर्देशन एक परामश-मण्डलके अधीन है, जिसके प्रथम सदस्य थे : श्री मोरारजी र० देसाई (अध्यक्ष), श्री काकासाहब कालेलकर, श्री देवदास गाधी, श्री प्यारेलाल नेयर, श्री मगनभाई प्रागजी देसाई, श्री जी० रामचन्द्रन, श्री श्रीमन्नारायण, श्री जीवनजी डा० देसाई और श्री पुरुषोत्तम मगेश छाड। सन्‌ १९५७ में श्री देवदास गाधी और श्री पुरुषोत्तम मंगेश लाडका देहान्त हो गया। सन्‌ १९५८ में श्री रं० रा० दिवाकर परामशैं-मण्डलमें शामिल हुए। सन्‌ १९६६ में श्री जीवनजी डा० देसाईके स्थानपर श्री ठाकोरमाई देसाई नियुक्त किये गये। सन्‌ १९६७ में पुत्रगंठित परामश-मण्डलके सदस्य हैँ: श्री मोरारजी र० देसाई




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