बबूल की महक | Babul Ki Mahak

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Babul Ki Mahak by मस्तराम कपूर - Mastram Kapoor

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शिक्डी-शू; कृष्णकुमार फ्रौशिफक अमलम और अरविन्द की दोस्ती को कोई ज्यादा समय नहीं हुआ था । असलम तो इसी शहर का रहने वाला था । उसके दिता ठेकेदार है। अरविन्द के पिता जिला जन- सम्पर्क अधिकारी मे पद पर दो वर्प पूर्व ही स्यानान्तरित होकर आये थे । दोनों सातवी के विद्यार्थी थे और आपस मे खूब परती थी । पढाई में तेज थे, खेल के शौकीन 4 हर बात में एक-रे । दोपहर का नाइता तक साथ बैठकर करते । एक दिन शाम को, स्कूल के खेल-मेदान में लडके वुद्ती कर रहे थे । जय शी कोई चित होता, आसमान तालियो और सीटियो की आावाजों से शूज उठता । इब्राहिम और रमेश मे शुर्ती लड़ी । दर्शनसिह और सुभापदास ने, राम और नरेन्द्र ने, यक्रेश और नीलाभ ने तथा इसी प्रकार कई जोड़ों ने कुदती लड़ी । एक कुश्ती पूरी होती तब तक दूसरा जोडा आतुर हो जाता । रमेश मे असलम से कहा, “क्यों मिया ! तुम नहीं लड़ोगे कुदनी ?” “कौन लडेगा मेरे साथ ?” असलम ने जांघ पर ताल ठोककर पूछा । नीलाभ ने अरविन्द की पोठ ठोको, “भिड़जा पडित मौलवी से ।”” “नहीं, अरविन्द से बुइ्तो नहीं लड़ा ।” असलम के मन में प्यार उमड़ रहा था ! हो गई भिण्डो-भू, नाम सुनते ही।” रमेश ने ताना कस दिया । यह बात नहीं है।” असलम ने सफाई देनी चाही । तो बया बात है? वई स्वर एक साय फूटे । “असलम कुछ बोले, इससे पहले ही रमेश में नारे बाजी सुरू कर दी “असलम हो ४” सभी चित्साये, “भिष्डी भू” दर किसे




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