भारतीय दर्शन | Bharatiya Darshan
श्रेणी : भारत / India
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9.15 MB
कुल पष्ठ :
491
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about नन्दकिशोर गोभिल - Nandkishor Gobhil
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्७ दर्दानशास्त्र इस दृष्टि से धर्म वे अन्तगंत सारी आत्मदिया ब्रह्मविद्या वा स्वत अभिनिवेश सिद्ध होता है । बत धर्म और दर्सन--दोनों वा एवं ही प्रयोजन नि श्रेयस को प्राप्ति होने के कारण दोनों एक ही हैं । इसी प्रवयर वेंदान्त के धर्मनिप्ठित ब्रह्म की प्राप्ति वे छिए मोग दर्शन में घममेघ समायि बा विधान किया गया हैँ । इस ससारचक के विधिरूप धर्म का ज्ञान जिस समाधि से होता हैँ वद्दी चर्ममेष समाधि है । धर्म और दर्शन दोनो एक-दूसरे पर जाघारित हैं । एक के घिना दुसरे की उपपत्ति स्थिति सभव ही नही यथा मनुस्मृति मे भी कहा गया है न हि अनध्यादतवित्् कइ्चिनू प्िपाफठमुपाइनुते जो अध्यात्मविद् है वही धर्म के स्वरूप को जानता है। बिना अध्यात्मवोध ये वर्मों का लनुप्ठान व्यर्थ है। ज्ञान दर्शन और भविन धर्म से बनुस्यूत भारतीय जीवन के सर्वागीण स्वरुप वो जाने घिना ही कुछ पाइ्चात्य विद्वाना को पह सम हुआ कि भारते में दर्शन भर धम को ठीक तरह से नहीं पहचाना गया । वास्तव में इन दोनो थे समन्वय से ही भारतीय जीवन का आरम हुआ है । हमारे यहाँ धर्म को अध्यारम पर भौर अध्यात्म वो धर्म पर अधिप्ठिति वरके देखा गया । मनु ने नहा भी है एतत् या दम चव्द से बहे जान चाल इस वृदयमानु वस्तु जगत था निर्माण परमात्मा ने विया है। इसलिए जो पुरुप अध्यात्मशासन या आत्मधिया को नहीं जानता चह किसी भी वार्य को मथोचित ढंग से सपने नहीं बर सबत्ता बौर उसके उचित फट को सही पा सत्ता । इसलिए शासारिव व्यवहारा वा. निपमन धर्मव्यवस्था उसी व्यक्ति का सौंपा जाना चाहिए जा बेदान्त को जानता हूँ वयोवि जी देदान्त को जानता है वही पुरुप प्रदुति के त्तत्च की उनकी उत्तत्ति स्थिति तथा लय को जानता है । इसी लिए ज्ञान भवित ओर वर्म वा समस्वय बताते हुए श्रीकृष्ण ने गीता में यहा है मेरा क्ञान प्राप्त करो सेवा भाव मवित से मेरा अनुस्परण व रो और थापवर्मों का विनाश वरने वे लिए वर्स में प्रवृत्ति रखो सामनुस्मर युध्व च 1 सीता में आगे बहा गया है कि यूटस्य अक्षर अव्यक्त पुर को पर्यपासना ही ज्ञान हूँ दिग्य उपाधि से उपदित ईश्वरत्व प्राप्त जीव को पाना ही भवित हूँ भौर सब प्राणियों का ययाझक्ति हित करना ही वमें है । ज्ञान भक्ति और कर्म बी इस निधारा में अवगाटन वरते रहना ही भारत की स्तन परम्परा हैं थौर यही वास्तविक भारतीय सस्टति है ।
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