गद्य सौरभ | Gadhya Sourabh

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Gadhya Sourabh by गुरु प्रसाद टंडन - Guru Prasad Tandan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका ९. प्रतापनारायण मिश्र विनोदप्रिय व्यक्ति थे । इनके गद्य मे व्यग्यपू्णं वक्रता मिलती हैँ और नेसगरिकता के साथ साथ ग्रामीणता का प्रवाह भी हैं। घनिष्ठता तो भट्टजी से अधिक इनके गद्य में हे पर हास्य कही कही सयमरहित भी है। स्पेलिग और विराम के दोषो के साभ कुछ पूर्वीपन की भलक भी इनके गद्य मे हे । अँग्रेजी के ससर्ग से नये नये शब्द और मुहाविरे हिन्दी गद्य मे आने लगे थे। विराम आदि चिन्हो का प्रयोग भी होने र्गा था। 'प्रेमघन' जी की भाषा अनुप्रास, रेप आदि अल्कारो के भार से अवनत हौ मथर गति से चलती है। भट्टजी और मिश्र जी ने जिस गद्य को बलिष्ट बनाया था प्रेमथघन' ने उसमे कछा का आविभाव किया। अनुप्रास और अनूठे पद-विन्यास की ओर इनका ध्यान गया था। इनकी भाषा में यद्यपि दुरूहता और अव्यावहारिकता हे पर वह अथंगर्भित अवश्य ই। कटही-कही वाक्यो की लम्बाई अंग्रेज लेखक रस्कित को याद दिला देती हें। चमत्कार और आलकारिकता के कारण स्वाभाविकता की कुछ हानि तो है परन्तु समालोचना का प्रारम्भ इन्ही ने किया था। भाषा की व्यजना शक्ति बढाने और उसके प्रसार में तो बहुत से लेखक सहायक हए हे किन्तु उसकी शुद्धता की ओर कम लेखक ही सचेष्ट ` थे । इसी वौच प० महावीरप्रसाद द्विवेदी ते व्याकरणसम्मत शुद्ध ग्य- रचना को विष उत्तेजन किया । सरस्वती के सपादक कै रूप मे दिवेदीजी ने बहुत से छेखो को काट-छॉट कर गुदध रूय देने मे वडा परिश्रम किया था} उनके गद्य मे ओज ओौर गाभीयं के साथ व्यग्य ओर प्रतिपक्षता की मात्रा विशेष है। बोलचाल के प्रचिलित विदेणी अब्दो एव मुहाविरो का प्रयोग करके द्विवेदी जी ने भाषा को वडी सजीवता दी। व्यग्यात्मक अथवा गवेपणात्मक आदि विभिन्न जैलियो में गद्य को




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