मानसरोवर भाग - 2 | Manasarovar Bhag - 2

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Manasarovar Bhag - 2 by श्री प्रेमचन्द जी - Shri Premchand Ji

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुसुम १५ उल्लास है, मेरी व्याकुलता मे दन्य ओर परवशता 1 उनके उपालम्ममे अधिकार ओौर ममता है, मेरे उपालम्भ मेँ भरनता ओर सदन । पत्र लम्बा हुआ जाता है और दिल का बोमकक हलका नहीं होता । भयकर गरमौ पढ़ रही है। दादा मुझे मसूरो ले जाने का विचार कर रहे हैं । मेरी दुर्बलता से उन्दे वटी वी० का सन्देह हो रदा दैः । वह नदीं जानते कि मेरे लिए मसूरी नदी, स्वगं भी कालकोठरी है । अभागिनी, “कुसुम. चौथा पत्र मेरे पत्थर के देवता; कल मस्र से लौट आई । लोग कहते हैं, बढ़ा स्वास्थ्य- वद्धंक ओर रमणौक रथान है, होगा । में तो एक दिन भी कमरे से नहीं निकली । भरन हृदयों के लिए ससार सूता है । मेने एक रात बढ़े मज़े का सपन देखा 1 बतलाऊँ , पर क्या फायदा । च-जाने क्यो अब भी सोत से डरती छ्ें। आशा का कच्चा धागा मुझे अब भी जीवन से वाँधे हुए हैं। जीवन-यान के द्वार पर जाकर बिना सेर किये लौट जाना कितना हसरतनाक दै | अन्दर क्या सुषमा हे, क्या आनन्द है । मेरे लिए वह द्वार ही बन्द है | कितनी अभिलाषाओं से विहार का आनन्द उठाने चली थी--क्तिनी तेयारियों से--पर मेरे पहुँचते ही द्वार बन्द हो गया है । अच्छा बतलाओ, में मर जाऊँगो, तो मेरी लाश पर आँसू की दो बूदें गिरा- ओगे १ जिसकी ज़िन्दगी-भर की जिम्मेदारी ली थी, जिसकी सदेव के लिए নাহ पकड़ी थी, क्या उसके साथ इतनी उदारता भी न करोगे ? मरनेवालों के अपराध सभी क्षमा कर दिया करते हैं । तुम भी क्षमा कर देना । आकर मेरे शव को अपने हाथों से नहलाना, अपने द्वाथ से सोहाग के सिन्द्र लगाना, अपने हाथ से सोहाग को चूढियाँ पहनाना, अपने द्वाथ से मेरे मुँह में गगाजल डालता, दो-चार पण कन्या दे देना, बस मेरी आत्मा सन्तुष हो जायगी और तुम्हे आशीर्वाद देगी। में वचन ठेती हू कि सालिक के दरबार में तुम्हारा यश गाऊँगी । क्या यह भी मच्गा सौदा ३११ एतने से शिक्षचार से तुम अपवी सारी जिम्मेदारी से मुक्त हुए जाते हो । आह | मुझे विज्ञास होता कि तुम स्तना शिश्चाचार करोगे, तो में कितनी देशौ से




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