साधना | Sadhana

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Sadhana by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्यक्ति का विष्व से सम्यध १५ में उसकी समभावना मानमर अपने अन्तस्थ स्व' से जिन्होंने पूण समता स्थिर कर ली थी ? ' हृदय में ही उसकी स्थिति का अनुमव करके वे सब बाह्य कामनाओं से विरस हो गए भे और ससार की सव गतिविधियों में उप्रको ही देशकर जिन्हें पूर्ण प्रशास्ति प्राप्स हो चुगी थी। ऋषि ये थ॑ जो ब्रह्मश्नान पाकर स्पिर शान्ति पा घुके थे बिनका मन विष्यात्मा से युक्त होकर विश्व के हृदय में प्रवेश पा भुझा था। इस तरह बिद्वात्मा से अपने सम्बघ वा ज्ञान पाना और परमात्मा বহে बनुमव फरके सवभूसों में एमास्मता प्राप्त करना ही भारतीय सुम्पता का परस ष्येय था। मनुष्य भपन कमा ठक सीमित नहीं । यह उनसे घड़ा है। उसके प्रवृत्ति-निवृत्ति निर्माण विनाध-सम्बम्भी सब बाम उसमें प्पाप्त होने के कारण भनुष्य के म्यग्लिरय से ्ठोटे है । जब मनुप्य सपमी सास्मा को क्षुद्र सस्कारों के मावरण में बैद कर लेता है या ससारी कार्मो फी आँधियां उसकी दृष्टि को घुधसा दना देठी हैं तो उसकी ब्यापक आत्मा अपनी स्वतन्त्र महातता गौ शो बठती है। मनुष्य श्यै खात्मा स्वसस्प्र दै, षह न तो अपमी ही गुस्ताम वनती है न संसार की किसी यस्तु की। किन्तु यह प्रेमी है। प्रेम उसका आावष्यक तह्व है। उसमी पूर्णता प्रेम मे ही है। पूण मिसन भी उसीका दूसरा नाम है। मिक्षत मा विज्तम थी हस प्रक्रिया के सन्त में ही उसकी भारमा विषय की आरमा में विश्नीन हो जाती है यही उसकी भात्मा का जीवन है। जब मनुष्य तूसरो को गिराफर उठने की कोशिए शप्ता ६ यौर उत्थान का अहंकार अनुभव मरने के लिपु पाषर्वषहीं परि स्तरिय का यर बन भाता है उव वह्‌ यपनी परकृठि से निपरीत माचरण गरता है। इसीसिए उपनिषवा में मनुष्य-जीवन की अरम सिद्धि को प्राप्त किए हुए स्यक्षितियों के लिए “प्रशास्ता और गुभतास्मान शब्दो का प्रयोग किया गया है। ईसा मसीह के इन दाब्दों में मी इसी सत्य की छाया है कि सुई के জিত में से प्रवेश कर ऊट भसे ही गुर माए, विन्तु स्पर्य फे राज्य में धनी १ सप्राप्येनण्‌ ऋपयो ब्रानतृष्ठा,, छृतात्मानों बीतराया:, प्रशास्ता ते सर्वग्र सर्बतः লা ছীতা' युश्तात्मान' सर्वतेबाविशम्ति ।




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