शिवप्रसाद सिंह के उपन्यासों की वाक्य संरचना का अनुशीलन | Shivprasad Singh Ke Upanyashon Ki Vakya Sanrachana Ka Anuseelan

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Shivprasad Singh Ke Upanyashon Ki Vakya Sanrachana Ka Anuseelan by रेनु द्विवेदी - Renu Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4 ऊपर संक्षप में वाक्य संरचना ओर उसके विन्यास मूलक जिन आधारों का संकेत किया गया है इन्हीं आधारों पर डा0 शिव प्रसाद सिंह के उपन्यासों की वाक्य संरचना का अनुशीलन किया जाएगा। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि डा0 शिव प्रसाद सिंह का भाषा-विषयक आदर्श और लक्ष्य क्या था? उनकी उपन्यास- सृष्टि का शिल्प क्या है साथ ही उनके उपन्यासों की वाक्य संरचना किस प्रकार की है। शिव प्रसाद सिंहः उपन्यास सृष्टि साहित्यकार ड0 शिवप्रसाद सिंह {1928-1998| एक बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे- एक भाषाविद, समीक्षकृ, दर्शनशास्त्री, निबन्धकार, नाटककार, कथाकार, उपन्यासकार, विचारक शोध प्रज्ञा- सम्पन्न एक ऐसे रचनाकार थे कि इन्होंने साहित्य की जिस विधा का स्पर्श किया उसी पर अपनी छाप छोड़ दी। प्रायः इनके इस बहु आयामी व्यक्तित्व को हिन्दी में बहुत कम लोग पचा पाते थे। उनके समकालीनों ने उनकी उपेक्षा की, पर उनकी रचनात्मक प्रतिभा अपनी डगर पर निरन्तर गतिशील बनी रही- उनकी मृत्यु तक। अन्य विधाओं की तरह उनके उपन्यास- सृष्टि भी विविधमुखी है। उन्होंने अपने एक उपन्यास के शिल्प या ढांचे को कभी दूसरे उपन्यास में नहीं दुहराया। जिनकी हर कथाकृति अपने रूप ओर प्रस्तुतीकरण मे विशिष्ट है। उनका पहला उपन्यास अलग-अलग वैतरणी है जो ग्रामीण जीवन के उस पतनमुखी समाज को उजागर करता है जो स्वतंत्रता के बाद उभर कर आया है। दूसरा उपन्यास युवा-अक्रोश पर आधारित गली आगे मुड़ती है” है जिसमें उन्होंने काशी के आधुनिक और समकालीन जीवन को चुना है, जो उनकी काशी श्रृंखला, में अन्तिम किन्तु, लेखन अवधि की दृष्टि से उस-।ब्र॒थ्ची का पहले प्रकाशित उपन्यास है। तीसरा उपन्यास नोला चाँद” है जो 1988 ईसवी में प्रकाशित हुआ। यह काशी श्रृंखला का _ दूसरा उपन्यास है। इसमें मध्यकाल की काशी और जुझौती की भी कुछ कथा आ गयी है। चौथा उपन्यास नटों के जीवन पर लिखा गया शैलूष [1989] है जो काफी विवादास्पद रहा और इसके बाद अपनी पुत्री को आधार बनाकर लिखा गया मंजुशिमा 11990] उपन्यास है जिसमें व्यक्तिगत्‌ पीड़ा और आज के अस्पतालों में व्याप्त संवेदन-हीनता को तीखी शैली में व्यक्त किया गया है। इसके बाद के उपन्यास ` कुहरे मेँ युद्ध [1993] तथा दिल्ली दूर है [1993] जो एक ही उपन्यास हनोज दिल्ली दूरअस्त




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