पारिवारिक हिंसा का समाजशास्त्रीय अध्ययन | Pariwarik Hinsa Ka Samajashastriya Adayayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
235 MB
कुल पष्ठ :
267
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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हुई। यह काल सामाजिक ओर धार्मिक संकीर्णता का युग था। स्त्रियां भी इस संकीर्ण विचारधारा का
शिकार बनी।
इस काल में स्त्रियौ 'गृहलक्ष्मी' से 'याचिका” के रूप में दिखाई देने लगी। जीवन और शक्ति
प्रदायिनी देवी अब निर्बलताओं की प्रतीक बन गयी। स्त्री जो किसी समय अपने प्रबल व्यक्तित्व के
द्वारा साहित्य और समाज के आदर्शो को प्रभावित करती थी अब परतन्त्र, पराधीन, निस्सहाय ओर
निर्बल बन चुकी थी। इस युग में यह विश्वास दिलाया गया कि पति ही स्त्री के लिए देवता है और
विवाह ही उसके जीवन का एक मात्र संस्कार है। अनेक पौराणिक गाथाओं और उपाख्यानों को ईश्वर
द्वारा रचित बताकर सतियों की कथाओं का प्रतिपादन किया। मनुस्मृति में यहाँ तक कह दिया गया
कि स्त्री कभी भी स्वतन्त्र रहने योग्य नहीं है।
यह भी कहा गया है किं विवाह का विधान ही स्त्रियां का उपनयन ই, पति की सेवः ही गुरुकुल
का वास है ओर घर का काम ही अग्नि की सेवा है। वास्तविकता यह है कि स्त्रियों की स्थिति के पतन
में इस काल को आधारभूत कहा जा सकता है जिसके बाद स्त्रियां एक “वस्तु” बन गयी जिन्हें पुरुष
अपनी इच्छानुसार किसी प्रकार उपयोग में ला सकता था।
मध्यकाल में स्त्रियों की प्रस्थिति -
सोलहवीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी का समय मध्यकाल में रखा जा सकता है। इस काल
में स्त्रियों की स्थिति में जितना पतन हुआ उतना कभी नहीं हुआ। यद्यपि पूर्व मध्ययुगीन समाज में
स्त्रियों की स्थिति निम्न होने का उल्लेख अनेक स्थानों पर दिखाई देता है। पूर्व मध्ययुग में समाज में
_ स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं रह गई थी। पहले की अपेक्षा वे निरन्तर पतनोन्मुख थी। इस युग मं
स्मृतिकारों नै बार-बार इस बात पर जोर दिया ই कि पत्नी के लिए सबसे बडा धर्म पति की सेवा
है। मत्स्य पुराण में तो यहाँ तक लिखा है कि - “पत्नी को सुधारने के लिए उसे रस्सी से अथवा बॉस
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