यज्ञतत्त्व | Yagyatattv

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Yagyatattv by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यज्ञतत्त (१) यज्ञ--भगवत्‌ साधना हिन्दु शास्त्र में भगवान एक बड़ा ही रहस्यपूण शब्द ই। साधारणतः भगवान की दो अवस्थाएँ बतायी गयी है- निर्गुण {10118 01{€5160 ) छर सगुण (11801165659) । লি वाक्य-मन के अगोचर हैं ; इसलिये चिन्ता-धारणा एवं साधन-भजन के भी अतीत हैं। किन्तु सगुण का साधन करते-करते निर्गुण भी किसी मात्रा में धारणा के विषयीभूत हो जाते हैं। जीव-जगत # सगुण भगवान की सजीब सूतिं हं । वे विश्वरूप है- विश्व के अन्तरात्मा है । उनका एक ओर नास परमात्मा ह ; आत्मा की परम--व्यापकता में परम एवं गम्भीरता में प्रम--सर्व अष्ठ अवस्था। ज्ीब-जगत उन्हीं की लीला-स्व्रीकृत विग्नह है । वे विश्व को रचकर, बिश्वरूप में परिणत अथवा विवतित हकर, अपने-आपको छिपाकर लीलारस विस्तार कर रहे हैं । इस छिपे हुए चोर को दं द निकालने का एकमा उपाय हे उनके रूट जीवों कौ सेवा करना, प्रक्रत | 'कल्याण करना । आत्मा को; परमात्मा को देखना-सममःना कठिन ह; देह दार वे प्रकाशित हैं ; इसलिए देह को अवलम्ब करके उनकी धारणा करनी होगी । अतः जीव की सेवा हाय शिव की सेवा का अधिकार लाभ करना ही श्रेष्ठ साधना है। हिन्दुओं के




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