कवितावली | Kavitavali

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Kavitavali by इन्द्रदेव नारायण - Indradev Narayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्शु बालकाण्ड दुद्यास्थनन्दन रामने चपछतासे चन्द्रमौलि भगवान, शड्टरका धनुष ,चढ़ा दिया । / मियनमहदु पुरदददलु गहन जानि आनिके सवैको सारु धनुष गढ़ायो है। जनकसदसि जेते भले-भढ़े भूमिपाठ किये बठद्दीन, च॒ आपनो बढ़ायो है ॥ कुठिस-कठोर कूर्मपीठतें कठिन अति दृठि न पिनाकु काहूँ चपरि चढ़ायो है । तुलसी सो रामके सरोज-पानि परसत ही ट्रय्यी मानों बारे ते पुरारि ही पढ़ायो है ॥१०॥ शीमदादेवजीने कासका दढन और जिपुरका नाश बहुत “कठिन समझकर सब कठोर पदार्थोको मँगाकर उनका साररुप यह धनुष चनचाया था । उसने जनकजीकी समामें जितने वड़े-बड़े राजा आये थे, उन सभीको चठहीन कर अपना ही चढ वड़ा रकक्‍खा ! बद्धसे भी कठोर भौर कछुएकी पीठसे भी कड़े उस धननुषकों कोई भी राजा बलपू्वक फुर्तीसे नहीं चढ़ा सका । तुल्सीदासजी कहते हैं--फिन्दु चहदी घन्ुष सगवान्‌ रामके कर- कमलका स्पर्दा दोते हो टूट गया, मानो महादेवजीका उसे बाछेपन ( आरमस्म ) से यही पाठ पढ़ाया हुआ था। डिगति उर्षिं अति गुर्वि, सर्व पव्वे समुद्र-सर । ब्याठ वधिर तेहि काठ, विकल दिगपाठ चराचर ॥ दिग्गयंद लरखरत परत दसकंधु मुख्स भर! सुर-बिमान हिमभाजु भालु संघटत परसपर ॥




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