निबन्धा लोक | Nibandha Lok

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Nibandha Lok by राजेन्द्र शर्मा - Rajendra Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १२ ) हैं | वस्तुजगत में व्यक्तियों की श्रावाज में जो अन्तर होता है, वही श्रन्तर विभिन्न लेखकों की शेली मे होता है । वस्तुजगत में जैसे प्रत्येक व्यक्ति का श्रपना विशिष्ट स्वर होता है, उसी प्रकार साहित्यिक जगत में प्रत्येक साहित्यकार की प्रपनी शैली होती है । शैली में शब्द-चयन, वाक्य-रचना तथा भाषा की विदिष्टताएँ ही नहीं श्रार्ती, उसमें तो व्यक्ति कौ विचार-पद्धति, उसकी मान्यताएं, उसको व्यक्तिगत रुचि, श्ररुचि, भ्रादि सभी स्पष्ट हो जाती हैँ । एकं विशिष्ट प्रकार को चिन्तन-क्रियाको विशिष्ट रूप में व्यक्त करने को होली कह सक्ते हँ । रोली का सम्बन्ध केवल भाषा से नहीं, जीवन से होता है, इसलिए शैली की नकल करना बिलकुल असम्भव है। “प्रसाद! और प्रेमचन्दजी की शैली का अश्रनुकरण करके श्राज तक कोई श्रसाद' श्रौर प्रेमचन्दजी न बन सका । किन्हीं दो व्यक्तियों की श्राकृति जैसे विलकूल नहीं मिल सकती, उसी प्रकार शैली भी | इस संसार में व्यक्ति की जो विशिष्ट श्राकृति दै, साहित्य में वही शैली है। वस्तुजगत में व्यक्ति का जो व्यक्तित्व है, साहित्य-जगत मे वही शैली है जिसकी श्रपनी शेली नहीं, वह चाहे कुच हो जाय, निबन्धकार नहीं हो सकता । निराला, महादेवी, पन्त, सरदार पूर्णासिह, वियोगीहरि को इस जगत मेजंसे हम उनकी श्राकृति देखकर पहचान लेते है, साहित्य-जगत में वेसे ही उनकी शैली देखकर उन्हें पहचान लेते हैं । यह दैली ही निबन्ध लिखने की कला की मूल भ्राघार है । इसके श्रभाव में निवन्ध का भवन खडा नहीं किया जा सकता ।




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