मन के मोती | Man Ke Moti

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Man Ke Moti by पुरोहित श्रीप्रतापनारायण - Purohit Shreepratapnarayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गायन, तजे लावसी ) द्रादिशक्रि की महाशक्ि को नमस्कार हे वारंवार भारत का कल्याण करे वह पहना उसे श ्रि-जय-दार रेरा (३.१; ` दिमामथिः! हम कैसे गावे तेरी गुण-गरिमा का गान हममे भरे हुए हैं केवल अल्प बुद्धि-विद्या-बल-ज्ञान ऐसी ग्रु क्षणग्रभा#पर, जो है अचला प्रभा-निधान विजय चाहते हैं हम पाना होकर लघु खद्योत-समान _तूही है बस करने वाली आयणों सें भी असु-सन्चार आदिशक्नि की महाशक्रि को नमस्कार है वारंवार। (२) . जिसका अज्जभुर परब्रह्म हे, हर-विधि दो दल हैं. सुकुमार । हैं जिसके चौदह लोकों की शाखाएं शोभा-आगार | विजली व वी




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