महाश्रमण सुनें उनकी परम्परायें सुनें | Mahashraman Sune Unki Paramparaye Sune

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Mahashraman Sune Unki Paramparaye Sune by भिक्खु - Bhikkhu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आचाय अहिरथने राहुल-कथाका आरम्भ उक्त वाक्योंसे किया। यह कहते हुए स्वयं उनके स्वरमें कुछ एसा उल्लास था जस वे स्वयं उस घटनाके साक्षात्‌ दशक रहे हों। शिल्पी समुदाय भी जपते कन्‌ हलको जाग्रत किये उस कथाको सन रहा था। सनन्दा तो, लगता था, कानोसे दी नहीं जअखोसं भो उस कथाकों सन रही थी। उसकी आगे अहिरथकी हर भाव- मंगिमाका दपण बनी हृदं धीँ | अहिरथने अपनी कथा आगे बढ़ायी-- राजा शद्भांदनके परिवारमें पुत्रका जन्म शाक्योके लिए पवे-सा बन गया था। -आयुधधारी शाक्य राजपथोंपर कुछ ऐसे मूमते-इठलाते धूमते मानो मगध विजय करके जाये हों । यह प्रसन्नता एक व्यक्तिकी नहीं समूचे शाक्यसंघकी थी । प्रमोदशाला्ं विनोदी शाक्योको 'भीड़को सँभाले न पा रहो थीं | द्रतशालाएँ राजकरसे मुक्त कर दी गयी थीं । यतमे अपने बहुमूल्य रत्नोंको हार-हारकर भी शाक्य पुरुप उदास न हो रहे थे। उस हारमें भी उन्हें जीत- जैसा सख मिल रहा था। अद्वपद, आकास, परिहारपथ सम्तिक, खलिका, घटिका सलाकहस्थ, पंगचीरः, वेकक, मःक्ख- चित्र, चिगंलिक, रथक, अक्खरिका, मनेसिका, ओर भी जाने केसे-केसे यत थे, जो सभी `वयके शाक्योके विनोदका साधन बने थे । कुछ हठीले शाक््य युवा तो आयुध-कोशल সন্হাল करनेसें क्ष त-विक्षत होकर भी मुसकरा रहे थे। उधर रसिक सम्प्रदायों में नृत्य-संगीतके अहर्निश आयोजन चल रहे थे | कोई गणिका रूपमालाका प्रशंसक उसके नृत्यसे प्रमुदित होकर कहता वैशालोकी अम्बपालीकी कीति तो बढ़ी है पर हमारी रूपमालाके रूप ओर नृत्य-कौशलको वह -भी देखे तो नगरवधूके. अपने गौर- শব ` .. ~ महाश्रमण सुनं! ४५. री




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