प्राकृत सूक्ति सरोज भाग - 1 | Prakrit Sookti Saroj Bhag-1

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Prakrit Sookti Saroj Bhag-1 by विनयचन्द्रजी महाराज - Vinaychandraji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सरोन। ] (७) [ दानाधिकार मूर, महया वरि हु जन्तेणं बागे आसन्नलक्खमदिगिन्च ॥ युक्को न जाई द्र इमासंसाए दण पि ॥५ छाया महता पि हि यत्नेन वाण आपतनलकष्यमधिङृत्य ॥ मुक्तो न॒ याति दर अनयाज्ञएया दानमपि ॥५॥ दोहा अत्ति प्रयत्न ते सयुक्त पिण षह समीप यदि खक्ष ॥ दुर नहीं जवे तथा, जान दान दो दश्च ॥५॥ अन्वयाथे - ( आम्बक्नकं ) समीपवर्ती लक्ष्य [ निश्वाने ] को ( अहिगिश्य ) ध्यान में रखकर [ अधिकार में करके ] ( महया ) महान { ज्ञत्तेण ) प्रयत्नो द्वारा ( सुक्को ) छोडा हुमा ( चि ) भी ( श्राणो ) चाण “(दूर ) दूर (न) नहीं ( जाइ ) जा सकता है ( इमा ) इसी ( आस्षसाए) भाएंसा [विचार] से ( दाण पि ) दान भी देना चाहिये । सावाश् - यथा समीपवत्ती रस्म बिंदु को आभिमुख रख: कर, मदान्‌ रलं करा छोटा इवा भी नाण कदापि दूर न्धी जा सक्ता हे, उसी पकार सुपा को, दिया “ना सत्तं दान भी कदापि निरथैक नदी शो सक्ता । পরি, সি ० টি চু জিত =




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