जैन धर्म की उदारता | Jain Dharm Ki Udarata
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
84
श्रेणी :
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No Information available about पं. पर्मेष्ठिदास जैन - Pt. Parmeshthidas Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand),[विमेद का आ्ाघार भाचरण ষ্ঠ [ १६
1 अर्थात् शुभ धार अशुम आपरण के भेद से ही जातियों में
पैदकी करपना को गई दे । आह्यणादिक जाति कोई कहीं
1र निश्चित, धास्तियिक या स्थाह नहीं है । कारण कि गुणों
$ दाने से दो उद्य जाति होता दे ओर गुणा के नाश द्ोने से
उस ज्ञाति का मो नाश द्वो नाता दे ।
विये | इससे अ्रधिकू स्पष्ट छुदर तथा उदार कथन
धीर फ्या हो सकता दे ? अ्मितगति आचाय ने उक्त कथन में
नंद स्पष्ट घोषित किया दे कि जातियाँ काएपनिक ई वास्तविक
रदी । उनका विभाग श्वुम और अशुम आचरण पर आधारित
, न कि जम पर ঘা জী भी जाति स्थायी नहीं दे । यदि
होश शुणी दे ठो उसका जा।त उच्च दे और यदि कोई दुगुणो
तो उसकी जाति नए दोर्रनोच हो जाता दै। इससे सिद्ध
कि नीय से नीच जाति में उत्पन्न द्या व्यक्तिभी शध दौकर
जधम धारण कर सकता दे ओर यद्ध उतना ही पयित्न हो
कता है ज्ञितना कि जम्म स छम जा अधिकाएे माना जाने
शा कोड भा जैन दावा दै 1 प्रत्येक व्यक्ति जैबधम धारणं
हर शचात्मङस्याण कर स्वा दि) यां कता जाविविशेषके
রি হাল ভথ नहीं दे, फितु मात्र भायरण पर दी दृष्टि रो
गई दै।ओ थाज ऊँच दे যু पल 'अनायों फे झावरण करने
हि नीच भी धन जाता है। या“
“अनार्यभाचरन् किंचिज्ञायवे नीबगोचर ॥7
+ रविपेशाचार्य ।
औैन समाज दा कर्तव्य है पद इन-आचार्य-याक्यों
पर विचार करे, जैनधम की उदारता को समझे और दूसरों
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