मुक्तिवाहिनी विजयवाहिनी | Muktivahini Vijayvahini

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Muktivahini Vijayvahini by रवींद्रनाथ ठाकुर - Ravindra Nath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# कारसो प्रमाद निह अभियान-गीत नवयुग का मंगल शंसा बजा, जन-जन वा गूंज उठा अन्तर, जब भारत को जनशक्ति जगी, घण-कण के मन में उठी लहर । पापाण-शिलाएँ শী দিনে को, जागरण-मन्त्र से जाग उठी। निधू'म अग्नि को ज्वालाएँ, आलस-निद्राको त्याग उटी। जो मलयानिल वन वहता ঘা, वह प्रलयकर तूफान हमा। चल पड़े तरुण ले विजय-ध्वजा, बलि के पथ पर आह्वान हुआ ॥ चल षडे जिधर से वौर-चरण, बन गया उधर हो पथ दुजंय। सागर में तैर चते पव॑त, पव॑त समतल दो शयां सदय \\ रण रंगमच को ओर अभय, भारत जननी के लाल बेदे। करवाल उठाकर कोटि-कोरि, বালী कै कात कराल बढे॥ ভুল শী भीम-समान हुआ, तिनका भी पावक-वाण हुआ | चल पडे तरुण ले विजय-घ्वजा, बलि के प पर आह्वान ~ विजयवाहिनो




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