प्राचीन भारत में रसायन का विकास | Prachin Bharat Mein Rasayan Ka Vikas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इतरा जच खन्न ऋक्‌ और उसके साथ की अन्य सहितां भारतीय सस्कृति के समस्त अगो को हमारे ऋ्रमबद्ध इतिहास के प्रत्येक युग में अनुप्राणित करती रही हं । वैदिक साहित्य ने जिस समाज को उद्बोधित किया, उसका हलका-सा आभास शतपथ ब्राह्मण मौर तैत्तिरीय सहिता मे भिरता है । एेतरेय ओर उस समय के आरण्यक एव वेदो की शाखाएं हमारे प्राचीनतम इतिहास की परम्परायो को आज तक कुछ-न-कुछ जीवित रखने मे समर्थं हुई ह । हमारे पास अपने समस्त वाडमय का एसा इतिहास तो नही है, जिसे हम शतियो ओर सवतो मं बांध सकं । यह वाडमय उस समय की रचना है, जब शास्त्रीय ज्ञान का प्रवाह विच्छिन्न धारा में सीमित नही हो पाया था। यज्ञ हमारे समस्त योग-क्षेस का केन्द्र था। यज्ञ का प्रतिनिधि था अग्नि, अग्ति का आविष्कार स्वय मानव-आविष्कार का परमोत्कर्ष था । मनुष्य ने सभ्यता के विकास में यव भौर धान्यो को प्राप्त किया । इसने न जाने कहाँ से तिर मौर अन्य सस्य उपलब्च किये 1 इसने गौ मौर अदव की सस्कृति का विकास किया । दूध से दही ओर दही से घृत निकाला । मधुमक्छियो से मधू प्राप्त किया मौर मधुर फलो का मास्वादन आरभ किया । यज्ञ को उसने अपने ये समस्त आविष्कार अपित कर दिये--यज्ञ में आहुतियाँ घृत, यव, तिछू और मधु की दी । यज्ञ के समस्त परिधान पारिवारिक उपकरण के प्रतिनिधि बने। सोम-याग में उन सब परिक्रियाओ का प्रयोग मिलेगा, जो एक ओर तो आयुर्वेद-शाला की परिक्तियाओ का आधार बनी, और दूसरी ओर पारिवारिक पाकशाला की। यज्ञशाल्ा में शूप, उल्खल, मुशर, प्रोक्षणी, शमी, शम्या, मन्‍्धनी, लुक, ख्रुव, दूषदू-उपल, अधिषवण, आस्पात्र, कुम्भ, ग्रह, नेत्र (रज्जु) ओौर न जाने कितने उपकरणो का प्रयोग हुमा, जो आज भी किसी न किसी रूप में रसायनशालाओ में विद्यमान है। इन सब उपकरणों से सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाएँ आज भी वैसी ही है। आगें के पृष्ठो में जो सामग्री प्रस्तुत की जा रही है, उससे स्पष्ट हो जायगा कि मानव ने रसायन का विकास किस पृष्ठ- भूमि में किया।




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