ब्रह्मचर्य | Bharamcharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सन्तत्ति-निग्रह १५ ৬ ओर महान्‌ कार्य सन्तानोत्पत्ति ही है, सन्‍्तानोत्यक्तिके भअछावा और किसी उद्देशयसे सहवास करनेको वे अपने रज-वीयंकी दण्डनीय क्षति मानने रूगेंगे ओर उसके फलस्वरूप स्व्री-पुरुषमें होनेवाली उत्तेजनाकों अपनी मृल्यवान गक्तिकी वैसी ही दण्डनीय क्षति समरभेंगे । हमारे छिए यह समभना बहुल मुश्किल बात नहीं हैँ कि प्राचीन कालके वैज्ञानिकोंने वीय-रक्षाकों क्‍यों इतना महच्च दिवा हं नीर क्यों इम वातपर उन्दोने इतना जोर दिया है कि : हम समाजके कल्याणके लिए उसे शक्तिके सर्वोत्कृप्ट रूपमें परिणत करें । उन्होंने तो स्पप्ट्रूपसे इस वातकी घोषणा की है कि जो (स्त्री और पुर्ष ) अपनी काम-वासनापर पूर्ण नियंत्रण कर ले वह शारीरिक, मामसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकारकी इतनी शवित प्राप्त कर लेता है जो भर किसी उपायसे प्राप्त नहीं की जा सकती । ऐसे महान ब्रह्मचारियोंकी अधिक संन्या क्या, एक भी बगेई हमें अपने थीचमें दिखाई नहीं पड़ता, इससे पाठकोंको घवराना नहीं चाहिए | अपने बीच जो ब्रह्मचारी आज हमें दिखाई देते हैं वे सचमुच बहुत अपूर्ण नमूने है । उनके लिए तो बहुत-से-बहुत यही कहा जा सकता हूँ कि वे ऐसे जिन्नासु नहीं कर पाये हैं। ऐसे दुढ़ वे अभी नहीं हुए हैं कि उनपर प्रदोभनका कोई असर ही न हो; लेकिन यह इसलिए नहीं है कि ब्रह्मचर्यकी प्राप्ति बहुत दुरूहु है; वल्कि सामाजिक वातावरण ही उसके विपरीत है और जो लोग ईमानदारीके साथ यह प्रयत्न कर रहे हैं उनमेंसे अधिकांग अनजाने सिर्फ इसी संयमका यत्न करते है, जवकि इसमें सफल होनेके स्थिर उन सब विपयों- के संयमका यत्न किया जाना चाहिए, जिनके चंगुलमें मनुप्य फंस सकता है । आवश्यकता है जैसा कि किसी भी विज्ञानमें निष्णात হীন अभिछापी किसी विद्यार्थीको करना पड़ता हैँ । यहां जिस रूपमें ब्रह्मचर्य लिया गया हैं, उस रूपमें जीवन-विज्ञानमें निण्णात होना ही वस्तुतः उसका अर्थ भी है । हरिजन सेवक, २१ मार्च १६३६




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