आजकल | Aajkal

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Aajkal  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हरिप्रस्तांद विजय को महाबलेदवर ले गए । नए बातावरण में वहुमा को कुछ-कुछ भूलने लगा । फिर भी उसकी याव उसके प्रत्तस्वल में बनी रही ! एक दिन उसते कहा-- चिलो पापा अहमदाबाद चलें ।'' “तुम्हारी ब॒झा शोर्जार पसस्द नहीं करती, भ्रगर तुम चाही तो हम क्रितो दूसरी जगह पर चलें ।” “पापा में शब शरारत नही करूंगा, मुझे सा के पास ले चलो । “विजय तुम सचमुच ही मुझे बहुत परेशान करते हो ! मेने कहा जो है कि हम बहा नहीं जा सकते इतन फहु कर वह्‌ तुरन्त ही बाहर निकल पए 1 जब वहु वापस प्राए तो उनको प्राच लाल ही रही थौ । विजय को यक्षीत हो गया कि पापा के सामने सा की बात नहीं फहनी चाहिए । অক গাল দ্ধ बहू बिलकुल गम्भीर स्वभाव का बालक हो गया था। एक दिल की बात थाद करके उसे बहुत पश्चाताप हृश्रा ( बहुत संसय पहले एक दिल उसने मोहनी की साडी काट दो भी और তল লাজ দ্বীন হা খাল “भ्रगर तुम मुझे हर वक्‍त इस तरह दिक करोगे, तो से चली जाऊगी और कभी घापस तही आाऊगी 11 बहु भूल गया कि पापा के सामने मा का ताम न लेने का उसने त्त किया भा, उससे पूछ ही लिया-- पापा, क्या मा सुझ्त से ल्ाराज हो कर चली गई है ? उनको लिख वो म कि शव मे उन्हें बित्कुल तग नही कछूणा । ण्डी तास भर फर उन्होने जवाब दिपा---. श्रच्छा लिक बृगा । भय तुम बाहर जाकर खेलों 1% प्रय विजय को शरारत करते में भी कुष्ठं मजा न प्राता | उसके कपडे साफ़ सुथरे रहते श्रौर उसकी पुस्तक कायदे से रस्ती रहती । उसका कोमल मुत्त म्रपा गया था श्रौर उसकी उदास श्रा्णें सदा कुछ खोलती-सी दिखाई प्रेती । एक हिने उसे ज्वर श्रा यया | গা श्रौर सहन करता ४तकी शक्ति से बाहर था । मा की याद कर बहु सुअक-सुधक कर रोने लगा। हरिप्रसाद ने उत्तको समझाते हुए कहा--रोझो লন আতা) भ्रती डाक्टर आकार भ्रच्छी दवा देगा भ्ौर तुम जल्दी प्रच्छे हो जाओगे 1 “लेकिन भा ? बहु कब आएगी ?” /बहू थोड़े दिनो में श्रा जाएगी ।“ “नही तुम्र शू० कह रहे हो । तुम भुझे बहुका रहे हो । वह कब श्राएगी ?/ तमा कह वहु वेदना से फट-पफूट कर्‌ रोनं लगा प्रौर उसको दाप्त करना कठिन ही गया । उस रात उसका ज्वर बढ़ गया श्रौर उसने अंडबडाना शुरू कर दिया । हरिप्रसाव का दिल पहुले ही बहुत दुखों था । भ्रव उन्हें प्रमन्न में भ्राया कि बहू मां फो कितना प्यार करता था। सौभाग्य से विजय का बुखार दूसरे विन ही कभ हों गया । लेकिन हरिभ्रसाद से यहु बात छिपी न॑ 'रही कि यच्चे का धन्त करण मां चे मिलने के लिए कितना छृथ्पटा रहु। था । हरिप्रसाद विजय फो प्रसन्न फरने के लिए नई-नई चीजें लाते, लेकिन क्षिस्ती चीज में भी उसका मने तं लगता । दे एक दित 'पारों मेता ले आए, जो बहुल सुरीला शती भी थी । विजय घण्ट उस्षफे पस वेषा रहत শী सोचता क्या, उस्ती की तरह बहू भी श्रफेलपन का श्रनुभेव करती दैः क्योकि बह भौ तो श्रपनी भा कं पसं उड कर नहीं जा सकती । एक विन उसने पिजरा शोलकर पक्षी कौ बन्धन मुक्त कर दिया । भैना तौर की तरह छजी से उड़ शई । श्रगर भगवान भे उपरे भी पख दिए होते, तो क्या वह भी भ्रपनी सां के पा उड़ कर्‌ न पहुच जाता । लेकिम उसमे मई १६१६ सोचा कि उसकी सा तो उसकी तनिक भी परवाह नहीं करती । क्‍या बहु उसे मित्कुल ही भूल गई है ” नही भ्राती तो सन प्राए, वह उसके बरगर श्रण्छी तरह रह सक्षेगा। वह भ्रमरूद के पेंड पर जा सैठा, जो प्रण उत्तका रोज का साथी बन गया था । নই वाषिक परीक्षा में दुलरे दें पर भ्राथा और श्रपते वर्ग का मानिंदर बताया गया। वहू एक सुशील बच्चा था। घर में सब कोई उसकी श्रच्छी तरहु से देखसाज् करते थे, फिर भी उत्का दिल बुझा-सा रहता था । वह्‌ श्रक्सर श्रपनी सा के विषम में सोचता प्रो< देस निश्चय पर पहुंचा था कि बहु उसे छोडकर कही चली गई ह । लेकिन जब कभी भी वह्‌ अपने पापा के साथ मा के विषय में कोई बात करता, तो वहु बहुत उदाप्त हो जाते । उनको बात्ती से ऐसा लगता कि बहु उसे श्रसलौ बात सही बता रहें, सिर बहुला रहे हैं 1 पापा অপ कितना प्यार करते है, फिर वहु यों इस तरह से बहका रहे है ? एक विन दिजप सें सहमे हुए स्वर में पुछा-- पापा, मा भर तो नही गई 71) “तुम यह क्‍या कह रहे हो ?” “सो फिर धहू प्राती वेणो नही / पत्र भी लो तही लिक्षतीं | जबकि मैे दनी बार लिखा है । तुम सब गुझें ठग रहें हो । सच-सच बताशो मा कहा गई हैं बिजय फु*“फूद कर रोते लगा | हरिप्रसाव कुछ बोलें नहीं । उसे आसुओो से दिल ठण्डा करने दिया । जब विजय दस्त हुआ, तो उन्होने कष्ा-~ “देखो बेटा, मा मरी नही है | पर कही चली गई है । “कहा 9) “दधर्‌ उधर देखने भालने के लिए 1 “यहा भी तो देखते के लिए कितनी चीणें हैं । तुम उच्चें बुन्नया क्यो तही लेते ?“ “रच्छ ধুলা लुगा । लेकिन विजय को कोई खास उम्मीद न थी। इसी लिए जब दो महीनों के बाव भा के आते फी सब्र विजय को दी गई तो उसे यकीन ही ते हुआ । “वह गर्मा की छट्ठियों में भ्रा रही है ।” विजय का सुहूं छोटा हो गया--यहु तो तुम पिछली छट्टियी में भी कहते थे ॥ “लेफिन विजय, इस बार तो बह सचमुच ही शभ्रा रही हैं। खुझ्दी को मारे विजय पापा के स्राथ लिप गया । जब हरिप्रसाद से विजय को इतना प्रसन्न देखा तो उन्हें सतोष हो गया कि उन्होने ठीक ही फैसला किया है। मोहनी लगातार अपने पत्री में यापर आने के लिए लिखे रहौ भौ । उनसे प्रार्थना कर रही थी कि बहू उसे वापस बुलवा लें। वह লী पिछले छ महीतों प्ते लिख रही थी शौर वह भी, बीती बात को भुला देता चाहते थे | लेकिन उप्त वूसरे बच्चे को कंसे अपनालें । उस बच्चे को दिन হাল प्रपने तप्तीप पक्षर उत्तका जीवत नरक तुह्य त हो लाए । कया विजय को उस के हाय में तोपता क्षब्छा होग। इस तरह के विचारों ते उपक फैसले को श्रदिग रहने दिया भा । लेफिन मोहनी के प्रार्थना करने के बावजूद भी उनका लो मन कुह रहा था, विजय के झाधुओ ने उप्ते कोमल कर दिया । उन्होंने मोहदी को गाते की इजाजत ই दी श्रौर विजय फी शुनी की सीमा त थी । उने লীনা श्रौर मौकर को, यहाँ तक कि ड्राइवर भ्रौर सल को भी खबर दरी । फिर भी उसका सन ने भरा, वह अपने बच्धु पेड ११९




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