भगवान है कि नहीं | Bhagwan Hai Ki Nahi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इन्टरव्यू (इस कहानी के, ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफ़िर को छोड़कर सभी पात्र काल्पनिक हैं ।) सुवीरा मुसाफ़िर का जिस दिन नतीजा निकला, उसी दिन समाचार पत्र में एक विज्ञापन छपा कि शहर के पब्लिक स्कूल में अध्यापिकाओं के तीन स्थान खाली हैं । शिक्षाशास्त्र में एम.एड. करके उसने फैसला किया था कि किसी स्कूल में वह नौकरी कर लेगी । नौकरी करके, विवाह कराने की अधिकारी हो जाएगी । स्कूल की मामूली नौकरी । इस से बड़ा सपना उसने कभी नहीं पाला था। एम. एड. में उसके अंक अच्छ-ख़ासे थे । और फिर स्कूल की छोटी-मोटी नौकरी कोई बड़ी ईश्वरीय देन नहीं होती । उसे मिल जानी चाहिए थी । बस, एक कमी थी । उसे पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं था । विज्ञापन में माँग की गई थी कि जिस उम्मीदवार को पढ़ाने की तजुरबा होगा, उसे तरजीह दी जायेगी । लेकिन नौकरी के बगैर पढ़ाने का तजुरबा कैसे हो सकता है, यह बात सुवीरा की समझ में नहीं आ रही थी। ं नौकरी से ज़्यादा जल्दी सुवीरा को विवाह की थी । जिस लड़के को वह चाहती थी, वह बेकार था और न ही आजकल के हालात में उसे नौकरी मिलने की कोई संभावना थी । या तो कोई सरकार के विरूद्ध नारेबाजी कर ले या सरकारी नौकरी । उसे तो पढ़ाई के ज़माने से ही लीडरी का चस्का पड़ गया था। तभी से सुवीरा से उसकी जान-पहचान थी । सुवीरा ने जल्दी-जल्दी एक आवेदन-पत्र तैयार किया, अपने कालेज के प्रिंसिपल से चरित्र का प्रमाण-पत्र लिया, और इससे पूर्व कि उसे डाक में डाले, कर्ण की प्रतीक्षा करने लगी (कर्ण उसके प्रेमी का नाम था)। कर्ण को दिखा कर अर्ज्षी भेजेगी, उसके भीतर की जवान-जहान प्रेयसी भावुक हो रही थी । उसका मन कहता, कर्ण का हाथ लेंगते ही उसका चुना जाना निश्चित हो जायेगा । उसके होने वाले बच्चे का बाप । उसका सजीला साजन। _ शाम को उनकी मुलाकात हुई। कर्ण ने अर्ज़ी पढ़ी और इस बात पर ज़िद करने लगा कि वह अपने नाम के साथ 'मुसाफ़िर' जरूर लिखे । सुवीरा ने तो जानबूझ . कर यह नहीं किया था । हमेशा वह कहा करती थी -- मुझे बैसाखियों पर चलना कतई पसन्द नहीं । मैं अपने पाँव पर खुद खड़ी होऊंगी । उसकी नज़र में यह “प्रष्टाचार' था, उसका किसी की उँगली पकड़ कर जीवन के उड़न खटोले में प्रवेश करना। “तो फिर बीबी, तुम्हें नौकरी नहीं मिलेगी,” कर्ण ने सिर हिलाते हुए कहा ।




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