जैन दर्शन | Jain Darshan

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Jain Darshan by अजीतकुमार शास्त्री - Ajitkumar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ता० १ अगस्त १९३७४ | घविप कया बला है ? किन्तु इसको जानने के लिये उत्सुक होने को आवश्यकता नहीं है । कारण, आज समाज के अधिकांश महातुभाव--लेठ, पंडित, विद्यार्थी, अध्यापक--सभी तो उससे परिचित होते जाते हैं। उस विष को 'जातीय पक्षपात' कहते हैं । जो इस विष के शिकार बनते हैँ वे दर तरह से अपने सज़ातीय माइयो को लाम पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। पाठकगण | यदि आप किसी मनुष्ष में वक्त दरकत देखे तो समझ लोजिये कि उस्र ज्ञाति भेद की विकराल दा म डस लिया है। प्रवचन वात्सल्य झोर स्वजातीय पच्षपात ! मोक्षमार्ग के प्रकरण में सम्यादर्शन का नाम अवश्य पढ़ा या सुना होगा । और ख्यग्ददन फे अष्ट अङ्कनं मै प्रवचन वारुसदय का नाम तो भुलाये मो नदीं भृता है । कारण, रक्तावन्धन का स्योहार प्रवचन घारसस्य अड् का पालन करने वाले श्री किष्णुकुमार मुनि की स्मृति को प्रति ष्ष ताज़ा बना देता है। सदधर्मी भाइयों के साथ फ्रियाटम क रूप से--कोरे बातुनो जमा ख से नहीं--वात्सल्य भाव का निर्वाह करने बाले धमप्रेमो वाद्तस्य जङ्ग के पालक, धारक ओर प्रभावक कहे जाते | । उनके इस सत्कार्य का सुफल भी जैनदशन में साधारण नद्दीं बतलाया है, व जैनधम के सूत्नधार, मैनतोथं के प्रचतंक ओर सिभमागंरतों क मार्गद शंक तोथडू र-पद्‌ को अलंकृत करके निर्वाण-लाभ करते हैं| किन्तु इस जातीय प्रेम से क्लीन से इदलोकिक ओर पारल्ठोकिक रुख को प्राप्ति होतो है ? यद दम आजतक भी नहीं जान सके । पण्डितवर आशा- जाति मेद्‌ का विच हर वरमेकोप्युपकृतो जैनो वरं नान्ये सखद: । -साभार धर्मास्त । ( ११ | घर जी | ने भो जैनमात्र के खाथ दो सद्दानुभूति और सत्प्रेम-प्रदशन का समर्थन किया है, पर आज कल का तो वातावरण हो निराला है। सदधर्मी दाट्तस्य का स्थान स्वजातीय पक्षपात को निखने लगा है, अमृत का स्थान विष को दिया ज्ञाता दै । यह विष केसे फैला ! समाज म यदह विष कैसे केला १ आजनने लग- भग १९ वधं क पटल जब शिक्षण प्राप्त करने के लिये में न काशो के विद्यात्तय में प्रवेश किया तथ पहली बार मुझे मात्दूम दुआ कि जैन समाज में भो बहुतसी जातियाँ है । मेरो बास्यावस्थाको मो मेरो इस अज्ञानता का दोष दिया जा सकता है, किन्तु मरी समझ # अनुसार इस क्षश्षानता का मुख्य कारण था--मरे नगर में केवल एक अप्रवाक् जानि का पाया जाना ' यदि अन्य स्थानों की तरद्द मरो जन्मभूमि के आसपास भो अन्य जैन जातियों का वासस्थान हाता तो विद्यालय में उस समय मुझे अचरज्ञ मे न पड़ना पढ़ता, जब प्रथप्त परि- चय में हो मेरे समवयसरक एक छात्र ने मुझ से मेरो जाति पूछो, ओर में ने कुछ चकितसा हो कर झपने को 'जैनी' बतछाया | उक्त घटना के बाद कई वर्ष तकके अपने अध्य- यन कांल में, मुझे ज्ञाति भद्‌ को उतनो उत्कट गर्च नीं मिलो जितनो आज अध्यापन काल म सिल रहो हैं । इस विपय मे आज समाज का वातावरण केसा है ? अधिकारपृथंक में यद्द नहीं बतला सक्ता, सन्तु प्रति वधं चरो ओर श्त आने वाले अपने विद्यार्थियों के साथ बात चोत करने से मैं ने यहो निश्चित किया है कि समाज की मनावृ्लियां




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