महाश्रमण महावीर | Mahashraman Mahaveer

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Mahashraman Mahaveer by सुमेरुचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€ ৫11 ) अपने पूर्वज़न्मों की ओर चली गई, उससे उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार ये इस विश्व के रंगममख्न पर एक नट के समान लाना रुपों को धारण करते हुए कर्मों के कुचक में फंसे हुए अपने जोबन को व्यतीत कर चुके हें । उन्होंने अपने पिता और माता से अपना मनोगत इस प्रकार व्यक्त किया; है इस शरीर के जनक साता और, पिता ' आपको यह्‌ बात अच्छी तरह ज्ञात है, कि मेरी आत्मा आपके द्वारा उत्पन्न नहीं हुई -“अस्य जनस्यात्मा न युवाभ्या जनितो” | अब मेरी आत्मा में परस विज्ञान रूपी ज्योति प्रकाशित हुई है, इसलिए बह अपने अनादि पिता आत्मस्वरूप को प्राप्त करना चाहती है,--“अयमात्मा श्रद्योड्धिल्- ज्ञान-ज्योतिः आत्मानमेवात्मनोउनादि-जनकमुपसपति ।” इसलिए मुझे आत्मकल्याण के चेत्र मे जानि हए श्राप विध्नकारी न षो, अपना आशीर्वाद टीजिये, जिससे म तपश्चर्या द्वारा कर्म-चक् का श्य करके आध्यात्मिक सिद्धि को श्राप्त कर भगवती अहिसा की पुण्य धारा द्वारा विश्व की शांति के पथ में लगाऊ।” साता पिता का मोहजाल सुद्द निश्चय बाल महावीर की विचारधारा म॑ तनिक भो परिवर्तन नही कर सका । भगवान की तकंमयी परिशुद्ध वाणी द्वारा सभी का सोहान्धकार दूर हुआ । दीष्ा - वह मङ्गल दिवस अगहन वदी दशमी का था, जव संध्या के समय उन्न सर्वपरिग्रह का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ली । पषिले बे पूर्णं रजञत्रय की साधना हेतु चन्द्रप्रभा पालकी पर बैठकर तपोवन में गये थे । आध्यात्मिक साधना के अंतस्तत्व से पूर्णतया अपरिचित्‌ व्यक्ति ऐसे त्याग का मूल्याकन न कर उस वृत्ति को उत्तरदायी श्रमशीक्ध जीवन से बिमुख হীনা (65০8015/) मानते हैं। उन लोगों की तत्वशूम्य दृष्टि मे कोल्हू के बेल की तरह निरन्तर जुता हा जीवन कर्मण्यता का प्रतीक माना जाता है। तस्त्वज्ञ व्यक्ति की दृष्टि दूसरी है।




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