कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | Karttikeyanupreksa

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Karttikeyanupreksa by कैलाशचन्द्र शास्त्री - Kelashchandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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- श्रीमद्‌ राजचन्द्र - डा ने उससे कहा-माई, सोच समञ्चकर भाव कहना । आरब बोल-जो मै कह रहा हं, वही बाजार भाव है, आप माक खरीद कर । श्रीमद्जी ने मार ठे लिया तथा उसको एक तरफ रख दिया । वे मनम जानते थे कि इसमें इसको नुकसान है, ओर हमे फायदा । परन्तु वे किंसीकी भूर का लम नहीं लेना चाहते थे | आरब घर पहुँचा, बड़े भाईसे सौदाकी बात की। वह घत्रराकर बोला तूने यह क्‍या किया | इसमें तो अपने को बहुत नुकसान है। अब क्या था। आर श्रीमद्जीके पास आया ओर सौदा रद्‌ करनेको कहा | व्यापारी नियमानुसार सौदा पक्का हो चुका था, आरब वापिस लेनेका अधिकारी नहीं था, फिर मी श्रीमद्जीने सौदा रद करके उसके मोती उसे वापस दे दिए । श्रीमद्जीको इस सौठासे हजारोंका फायदा था, तोभी उन्होंने उसकी अन्‍्तरात्माको दुखित करना अनुचित समझा और मोती छोटा दिए। कितनी निःस्पृहता, लोभबवृत्तिका अभाव | आजके व्यापारियोंमें जो सत्यता आ जाय तो सरकार को नित्य नये नये नियम बनानेकी जरूरत ही न रहे और मनुष्य समाज मुखपूर्वक जीवन यापन कर सके । श्रीमदूजी की दृष्टि विशाल थी। आज भिन्न भिन्न संप्रदायवाले उनके वचनोंका रुचि सहित आदर पूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । उन्हें वाडाबन्दी पसन्द नहीं थे। वे कहा करते थे कुगुरुओंने मनुष्योंकी मनुष्यता छूट ली है, विपरीत मार्गमें रुचि उत्पन्न करा दी है, सत्य समझानेकी अपेक्षा वे अपनी मान्यताकों ही समझानेका विशेष प्रयत्न करते है। सद्भाग्यसे ही जीवको सह्ुुरुका योग मिलता है, पहचानना कठिन है और उसकी आज्ञानुसार प्रवर्तन तो अत्यन्त कठिन है । उन्होंने धर्मको खमात्रकी सिद्धि करने वाल्म कहा है, धर्मोमें जो भिन्नता देखी जाती है, उसका कारण दृष्टिकी भिन्नता बतलाया है। इसीं बात को वे स्वयं दोदोमे प्रगट करते हैं । मिन्न भिन्न मत देखिए, भेद दृष्टि नो यह। एक तत्वनां मूल्मां, व्याप्या मानों तेह ॥ तेह तत्त्वरूप इक्षनो, आत्मधर्म छे मूल | खभावनी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूल ॥ श्रीमदजीने इस युगको एक अलोकिकदृष्टि प्रदान की है वे रूढि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे, उन्होंने आइम्बरों में धर्म नहीं माना था। मुमुक्षुओ को भी मतमतान्तर, कदाग्रह और राग द्वेष आदिसे दूर रहनेका उपदेश करते थे । वीतरागताकी ओर ही उनका ध्यान था | पेदीसे अवकाश ठेकर वे अमुक समय ग्वंभात, काविटा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो ओर ईडरके पर्वतम एकान्त बास किया क्रते ये। मुमुक्षु ओको आत्म-कर्याणका सचा मागे बताते ये । इनके एक एक पत्रमे कोई अपूर्वं रहस्य भरा हू है । उन प्रका मम समन्चनेके लिए सन्तसमागम की विशेष आवश्यकता अपेक्षित है । ज्यो ज्यो इनके लेग्वोका शान्त ओर एकाग्र चित्तसे मनन किया जातादहै, त्यो त्यो आत्मा क्षण मरके लिए एक अपूर्व आनन्दका अनुभव करता है । ^श्रीमद्‌ राजचन्द्र ` प्रन्थके पत्रोमिं ही इनका आन्तरिक जीवन अंकित हे | श्रीमद्‌ जीकी भारतम अच्छी प्रसिद्धि हुई। मुम॒क्षुओने उन्हे अपना आदरो माना । बम्ब रहकर भी वे पत्रोद्वारा उनकी शंकाओं का समाधान करते रहते ये । प्रातःस्मरणीय श्रीधुराज स्वामी इनके रिष्योमिं मुख्य ये । श्रीमदूजीद्वारा उपदिष्ट त्वनज्ञानका संसारमे प्रचार हो, तथा अनादिकालसे परिभ्रमण करनेवाले जीवोको पक्षपात रहित मोक्षमागेकी प्राप्ति हो, इस उदरेशको लक्षयमे र्वकर, स्वामीजीके उपदेशसे श्रीमद्‌जीके उपासकोने गुजरातमे अगास स्टेशनके पास ° श्रीमद्‌ राजचन्द्र आश्रम ` की स्थापना की, जो आज भी उरन्ीकी आशज्ञानुसार चल रहा है । इसके सिवाय सेभात नरोडा, धामण, आहोर, भाद्रण, बवाणिया, काविटा, नार, सीमरडा आदि स्थलोमे इनके नामसे आश्रम तथा मन्दिर स्थापित हुए है । श्रीमद्‌ राजचन्द्र आश्रम, अगास, के अनुसार ही उने प्रवृत्ति है । अर्थात्‌ श्रीमद्‌ जीकी भक्ति और तत्त्वशानकी प्रधानता है ।




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