भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान | Bhartiya Sanskriti Me Jain Dharm Ka Yogdan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
501
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ऊदार नीति का सैद्धान्कक आफक्वर ' { + |
है। रावण की दशमुखी राक्षस न मात कर उसे विद्याधर वंशी माना है, जिसके स्वाभाविकं
एक मुख के अतिरिक्त गले के हार के नौ मशियों मे मुख का प्रतिबिम्ध पड़ने से लोग उसे
दक्षानन भी कहते थे | अ्रग्निपरीक्षा हो जाने पर भी जिस सीता के सत्तीत्व के संबंध में
लोग निःशंक नही हो सके, उस प्रसंग को जैन रामायणा मे बड़ी चतुराई से निबाहा गया
है । सीता किसीप्रकार भी रावण से प्रेम करने के लिये राजी नहीं है। इस कारण
रावरा के दुख को दूर करने के लिये उसे यह सलाह दी जाती है कि वह सीता के
साथ बलात्कार केरे । कितु रावरा इसके लिये कदापि तैयार नहीं होता । वह कहता
है कि मैने ब्रत लिया है कि किसो स्त्री को राजी किये बिना मैं कभी उसे अपने भोग
का साधन नही बनाऊंगा। इसप्रकार जैन पुराणों में रावण को राक्षसी वृति से ऊपर
उठाया गया है, और साथ ही सीता के अक्षुण्ण सतीत्व का ऐसा प्रमाण उपस्थित कर
दिया गया है, जो शंका से परे और श्रकाट्य हो । इन पुराणो मे हनुमान, सुग्रीव भादि
को बदर नही, कितु विद्याधर वशी राजा मानां गया है, जिनका ध्वज चिन्ह बानर
धा । इसप्रकार जैनपुराणोमे जो कथाप्नौो का वैशिष्ट्य पाया जाता है, वहु निरर्थक
श्रथवा धार्मिक पक्षपात की संकुचित भावना से प्रेरित नही दहै । उसका एक महान्
प्रयोजन यह दहै कि उसके हारा लोकमे ग्रौचित्य कीटहानिनहो, श्रौरसाथही भ्रायं
अनाये किसी भी वर्ग की जनता को उससे किसी प्रकार की ठेस न पहुंचकर उनकी
भावनाओं की भले प्रकार रक्षा हो ।
देश में कभी यक्षों और नागों की भी पूजा होती थी, श्रौर इसके लिये उनकी
मूतिया वं मन्दिर भी बनाये जाते थे। प्राचीन ग्रंथो मे इस बात के प्रमाण हैं । इनके
उपासको को इतिहासवे्ता मूलतः श्रनायं मानते है । जैनियों ने उनकी हिसात्मक
पूजा-विधियों का तो निषेध किया, किन्तु प्रमुख यक्ष नागादि देवी देवताओं को श्रपने
तीर्थंकरों के रक्षक रूप से स्वीकार कर, उन्हे अपने देवालयों में भी स्थान दिया है।
राक्षस, भूत, पिशाच आदि चाहे मनुष्य रहे हों, भ्रथवा और किसी प्रकार के प्राणी,
किन्तु देश के किन्ही वर्गो मे इनकी कुछ न कुछ मान्यता थी, जिसका झादर करते
हुए जैनियो ने इन्हे एक जाति के देव स्वीकार किया है।
उदार नीति का सैद्धान्तिक आधार-
जैनियो की उक्त संग्राहक प्रवत्तियों पर से सम्भवतः यह कहा जा सकता है कि
जैनधमे श्रवसरवादी रहा है, जिसके कारणा उसमे भ्रनेक विरोधी बातों का समावेश
कर लिया गया है! किन्तु गम्भीर विचार करने से यह श्रनुमान निर्मुल सिद्ध हो
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