श्रीश्रीचैतन्य - चरितावली | Shri ShriChaitanya Charitavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रभुके बृन्दाथन जानेसे भक्तोंकी विरद्द १३ प्रमुके दर्शनोंके लिये उत्सुकता प्रकट कर रही थीं। इसलिये मदासजने इाथियोपर जरीदार पर्दे डल्याकर उन्हें रास्तेके इधर-उधर खड़ा कर दिया; जिससे ये मद्गप्रभुके मलीमाँति दर्शन कर सकें। महाप्रभु प्रेममें पागल हुए. मन्द-मन्द गतिसे उधर जाने छगे । उनके पीछे द्वाथी, घोड़े तथा बहुत-से लोगोंकी भीड़ चडी। इस प्रकार समी भक्तेके सदित प्रथु चिरोटा नदीके किनारे आये | वहाँ महाराजकी ओरसे नौका पहलेसे टी तैयार थी। महाप्रभुने मक्तोंके सद्दित चित्रोत्पण्णा नदीकों पार किया और नतुद्धारमि आकर समीने रात्रि व्यतीत फी । जह्“ँसे प्रभुने चित्रोत्पणाकों पार किया) यहाँ मद्दाराजने प्रभुकी स्मृतिमें एक बड़ा भारी स्छृतिस्तूप बनवाया और उस धाठकों तीर्थ मानकर ख्लान करनेके निमित्त आने छगे | गदाधर पण्डितका नाम तो पाठक जानते ही होंगे। ये मद्माप्रभुकी आशतसे क्षेत्र-संन्यास लेकर पुरीके निकट गोपीनाथजीके मन्दिरमे उनकी सेवा करते हुए, निधास करते थे । किसी तीर्थ्मे घर-द्वारको छोड़कर प्रतिगापूर्वक रहनेको क्षेत्र-संन्यास कह्दते हैं । यहाँ रहकर भगवत्‌-प्रीत्यर्थ ही सब कार्य किये जायें, इसी सड्डल्पसे पुरुपोत्तम-क्षेत्रम गदाघरजी निवास करते थे | जब मद्गाप्रभ॒ गौड़-देशकों चलने लगे, तब तो उन्हें पुरुषोत्तम-क्षेत्रम रहना असह्य हो गया और वे सब कुछ छोड़-छाड्कर प्रमुके साथ हो लिये ! मह्प्रभुके चरणेमिं उनका हृद अनुराग था, वे महप्रभुको परित््याग करके क्षणमर भी दूसरी जगद रहना नहीं चाइते थे | महाप्रभुने इन्हें बहुत समझाया, किन्तु ये किसी प्रकार भी छौटनेको तैयार नहीं हुए । जब्र महाप्रभुने अत्यन्त ही आग्रह किया। तब प्रेमजन्य रोपके स्वरमें इन्होंने कद्ा--“आप मुझे विवश क्यों कर रहे हैं । जाइये। में आपके साथ नहीं जाता । मै तो नवद्धीपमै शचीमाताके दर्शनोंके लिये जा रहा हूँ । आप मेरे रास्तेक्रो वो रोक ही न लेंगे । बस+ इतना ही है कि मैं आपके साथ नहीं चहूँगा |? इतना कहकर ये प्रभुसे




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