अभिधर्मकोष | Abhidharmkosh
श्रेणी : भाषा / Language
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
452
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वसुबन्धु के कोद ग्रन्थ का भावतामय (चिन्तामयी, श्रुतिमयी, भावनामयी इन तीन प्रकार की
प्रज्ञाओों में भावनामयी प्रज्ञा द्वारा) ऐसा स्नान कराती थी, जिससे शास्त्रार्थसमर की रसहीनता
(समर + भा + अरसम् भावनाभिषेकम् ), उत्पन्न हो जाती थी ,अथवा जिससे युद्धों के गुरुतर भार
की संभावना उत्पन्न हो जाती थी, अथवा शास्त्रार्थ रूपी युद्ध में प्रतिभा प्रदर्शन द्वारा जल-विरहित
केवल भावनामय अभिषेक किया जाता था।'
इसमें कोई सन्देह नहीं रहे जाता किं सातवीं शती के आरम्भ में लिखने बाले महाकवि
बाण वसुबन्धु के कोश ओर दिडनाग दारा उसके प्रौढ़ शास्त्राथयुक्त मंडन की किवदन्ती से परि-
चित थे ओर उनके पाठक भी उनके उस अथं का स्वारस्य अनुभव कर सकते थे। इस उल्लेख
का ऐतिहासिक महत्त्व जिस दूसरे कारण से हो जाता है वह कालिदास द्वारा मेधदूत में दिड्नाग
के स्थूल हम ॥ दः का एता ही संकेत है। हम सब इस पुराने साक्ष्य से परिचित हँ---
বিজনামানা पथि परिहरन् स्थूलहस्तवलेषान् । (मेधदूतं १।१४)
(मल्लिनाथ) विहनागाचायंस्य हस्तावलेपान् हस्त विन्यासपूर्वकाणि दुकणानि परिहरत् ।
अर्थात् दिडनाग आचायं हृस्तविन्यासपूवंक शास्तायं में हाथ फटकार कर जो अवलेप अर्थात्
धमंड का अपराध या दूषण करते ह, उसे दूर करते हुए जाना। कालिदास का स्थूल हस्तावलेष
ओर बाण का दर्पात् परामृशन्. , , बाहुशिखरकोशस्य वामः पाणिपल्लवः एकं ही किंवदन्ती की
ओर संकेत कर रहे हँ । इसका अभिप्राय यह है कि क्सुबन्धु और उनके शिष्य दिडनाग की एति
हासिक स्थिति का समय कालिदास के युग से सम्बन्धित हो जात ह । यह् अनुश्रुति अत्यन्त पुष्ट
है किं कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन थे। जैसा फ्राउवालनर ने लिखा है-
“भारतीय आधार पर आश्रित अनुश्रुति को हम विना भारी कारण के अमान्य नहीं ठहरा सक्ते;
अन्यथा ऐतिहासिक अनुसंधान के तलवों के नीचे की सारी मिरी ही चिसक जायगी । मेरी सम्मति
में यहाँ प्रत्येक अनुश्रुति जब तक भीतरी साक्षी से असम्भाव्य सिद्ध न हो और उसके विरुद्ध गुर्तर
तक॑ या प्रमाण उपस्थित न हो, हमारे ऊहापोह में आधाररूप से मान्य होनी चाहिए।” (ऑन
दी डेट आफ वसुबन्धु, पृ० ३६-३७) । यद्यपि फ्राउवालनर के दो वसुबन्धुओं का मत हमें स्वीकार्य
नहीं हं, तथापि असंग जिनके ज्येष्ठ श्लाता थे उन स्थविर वसुबन्धु का जो समय उन्होंने निश्चित
किया ह, अर्थात् चौथी शती मेँ ३२०-४०० ई० तक वह हमारे उपर कै प्रमाण से संगत बैठ जाता
है, अर्थात् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कं राज्यकाल में ही कह वसुबन्धु हुए जिन्होने अभिधमं कोश की
रचना की, और जिनके शिष्य दिडनाग अपने गुरं के महाग्रन्थ कं मंडन कं लिये शास्त्रार्थो की धूम
मचाये रहते थे, जिसकी सूचना कालिदास ओर बाण दोनों को थी ।
वसुबन्धु का एक अन्य ग्रन्थ कर्मसिदिप्रकरण ह । मूल संस्कृत में यह अनुपलब्ध है, प्र
१. तमरभारसंभावनाभिषेक का पदच्छेद करई प्रकारते सम्भव हे-- (१) समर (হাতা
रूपी युद्ध) না (व्रतिभा) + अरसम् (नीरस) + भावना (विचार, भाष॑ता- था प्रज्ञा)-
अभिषेकम् (२) समर + भार + संभावना | अभिषेकस् (व থক सार पीट से रक्त द्वारा अभिर
वेक की सम्भावना उत्पन्न हो जाती थी; (३) अथवा विद नाग समर (शास्त्रार्थ युद्ध) में अपनी
प्रतिभा द्वारा (भा) विनाजल का (अरस) भावनामय अभिषेक वसुबन्धु के कोदा को कराते थे।
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