स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | Swamikartikeyanupreksha

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Swamikartikeyanupreksha by जयचंद्रजी - Jaychandraji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(-३ 3) ` पह दक रेसी सापान्य सरै सो क्रीडा विजिगीषा पुति तुवि पोद भति काति इत्यादि क्रिया फरै ताकौ देव क ,हियि, तद्य सामन्य्पि तो चार प्रकारके देव वा कथितं द्वेव भी गिमिये है दिनि न्याश दिखनेकरे অধি विशव नतिलक' ऐसा विशेषश किया तातै अन्यदेवका ध्यवच्छेंद ( निराकरण ) मया, बहुरि तीमभुवनके तिलक इन्द्र भी द विनत न्यारा दिखावनेके সাথি (व्रिशुरनेंद्रपरिपृष्य! ऐसा -विशेषण किया, या दीन थु्रनके इन्द्रनिकरि भी पूननीक सा देव है ताहि नपस्‍्कार फिया, इहा ऐसा जानना कि शेसा देवपणा »ईत्‌ सिद्ध भाचावे उपाध्याय साधु इन पथ . प्रमष्ठीषिमै षी समे ६ जदि परम स्वात्मजनितं भानद्‌ स- -दित कीडा, तथो कमेक जीतने रूप विजिगीषा, स्वालन- नितं भकाशरूप धरति, सेघरूपकी स्तुपि, स्वहपपिमे एरम- श्रमोद्‌, ठोकालोकन्पाष्ठखूप गतत, शुद्धस्रपकी गरत्तिरूप ^ कानत इत्यादि देष्पणाफी उक्ष किया सो समस्तएक्रपेए वा सर्वदेशरूप हनिद्दीविये पाईए है ताएँ सर्वोक्तष्ट देवपना * इनिद्दीविप आया, ता इनिकों मगलरूप नमस्कार युक्त है. “४ “भ कहिये पाप ताकों गाले तथा * मगर ? कहिये सुख, तरका -लाति ददाति कहिये दे, ताहि मगल कहिये, शो ऐसे देवरों नेपस्कार करने शुभपरिणाप হী ই আসি पापका नादा छे ६, शाततमापूप सुप प्रति दो ६, बहुरि अलुग्ताका साः मन्य जै वारम्डार चितवन करना दै হা জিন अनेक... अफार है, ताके फरनेवाले भनेक ६, বিনিধ न्रे তি * .




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