प्रायश्चित और उन्मुक्तिका बंधन | Prayshchit Aur Unmuktika Bandhan

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Prayshchit Aur Unmuktika Bandhan by पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी - Padumlal Punnalal Bakshiपदुमलाल बक्शी- Padumlal Bakshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१ पहला अंक कमठा+-- कुमार, तुम अकेले नहीं आये हो! ब्रक्षके नीचे वह कौन खडा है! कुमारसिह-- कमला, कुछ भय मत करे । वह तुम्हारी ही सेवाके लिए खड़ा है | पर तुम उदापत कसी हो ‹ तुम्हारा शशर कॉप क्यों रहा है ? प्रिय, घेये घर | वह देखो, आकाशंम नक्षत्र भी हम लेगेंके आगमनकी प्रदीक्षासे चंचल हो रहे हैं । आओ, आज तुम्हे में अपने हृदय-मंद्रिर्की अधिष्ठाओ देवी बनाऊँ । पर तुम्हारा भय अब भी नहीं गया है | क्या तुम्हें कुछ आशंका है £ प्रिये, देखो, मेने तुम्हें अपने बराहु-पाशम बद्ध कर लिया है । तुम इससे निकल नहीं सकती । अब्र मंदिरकी अंधकार-पूर्ण न्यत्र मत जाओ | प्रेम आजतक उपम निद्रित था | अब प्रमने आझाकका दर्शन किया ६ जा उसे दुलेभ हो गया था । द श्रमका विजय-दिवस है । आज प्रेमने हम लोगोंके हृदयोंको एकत्रित कर भविष्य भाग्यका निश्चय कर दिया | कमछा, आज $ तुम्हें प्रथम वार देखता हैँ, नुम्होंर समीप आकर तुम्हे स्पशे करता हूँ । [ कमलाको हृदयसे लगा छेता है । ] कमटा-- कुमार, मुञ्च स्परे मत करो, पुङ्खे दूर रहो । क्या तुमने ऐसी ही प्रतिज्ञा कौ थी !




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