भारतीय दर्शन - शास्त्र | Bhartiya Darshan Sastra

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Bhartiya Darshan Sastra  by पं. राधाकृष्ण मिश्र - Pt. Radhakrishna Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संसायवा्यलाका्म्नाााधकालायाान्नाध्कननकाादााददयाादलरधधानायावलागकायाकादााकागदानवाावााययानयारटुटएद्ययवाददालारपदमदडदयाादलाददरययनानदाान याद रददनकयमददददालरदल्दयादायदयादादरददकरनागममय यार ययददददददयकदममयकड नम आदी व व वी व व अं आदी सखरण करना मिश्रजीके स्वभावकी विशेषता थी । अविचलित घेयं जो वीर्त्वका लक्षण 2 उससे मिश्रजीका हृदय पूर्ण था । निन्‍्दा-स्तुति--दोनोंकी ही समान भावसे उपेक्षा कर अपने अजभीष्रकी सिद्धिके पथमें चलनेकी शक्तिके भीतर जो साइसिकता छिपी रहती है वह साहसिकता--मिश्रजीमें पूरी मात्रामें थी । उन्होंने कभी किसी घनिककों खुश करनेकी चेछ्टा न की । सत्य बात कहब्लेमें वह कभी पश्चात्पद न हुए । गुरुओंके भी दोषोंको प्रकट करनेमें वह कभी नहीं हिचके । महामहोपाध्याय स्वगींय पशिडत राममिश्रज़ी शास्त्रीकी भी तुरीय मीमांसा के लिये उन्होंने खबर ले डाली थी । भारतधमं-महामण्डलको खुल्यव- स्थित करनेके प्रश्नकों छेकर वह डट गये थे । घमेके लिये उन्हें अपने चिरन्तन मित्रोंका भी विरोध करना पड़ा था । भारतघम- महामर्डलके स्वस्व्र श्रीस्वामी ज्ञानानन्द्जी महाराज मिश्रजीसे एकान्त प्रीति रखते थे। परन्तु मघसूदन-संहिताके प्रकाशित होने पर जब मिश्रजीने देखा कि स्वामीजीका यह सारा प्रयास अपनेकों अवतार सिद्ध करनेके लिये है तब॑ उस समय उन्होंने स्वामो- जीके प्रेमफी पवांह न की और अन्तमें वह उस संहिताका वहि- द्कार करा कर माने । मिश्रजीके इस खरेपनसे उनके कितने ही मित्र भी समय समय पर नाराज हो जाते थे परन्तु उनकी नारा जगी मिश्रजीके सिद्धान्तकों बदल देनेमें कभी समर्थ न हुई । स्वयं कष्ट पाकर भी अपने विपदुद्स्त मित्रोंकी सहायता करते रहना ६




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