हिंदी विपूव कोष - भाग 21 | Hindii Vipuuva Koshh Ekavish Bhaag
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
93 MB
कुल पष्ठ :
772
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वस्त्र
चन्द्रायणवत है । चान्द्रायण करनेसे दां वह ष्यक्ति
उक्त पाप वा अपराधसे मुक्त हो सकता है।
इस प्रकार रक्त वस्त्र पहन कर লী विष्णुपूजादि
करना निषिद्ध है । उक्त वराहपुराणमें दूसरो जगह लिखा
है, कि रक्त वखर पहन कर विष्णुपूजा करनेसे रतखला
स्त्रियोंके जो रक्त मोक्षण होता है उस रक्तसे लिप्ताड़ः दो
कर उक्त पूज़कके पन्द्रदह वर्ष तक नरकमें वास करना
पड़े गा। इस अपराध-शोधनका प्रायश्चित्त है--सत्तरह
दिन पकाहार, तीन दिन वायुभक्षण तथा एक दिन ज्ञला-
হাহ ।
काला वस्र पहन कर भी विष्णुपूजादि नहीं करनो
चाहिये। करनेसे पूजकके पदले पांच यष तक धरून दो
कर जन्म लेना पड़े गा, पोछे काई काप्ठरभक्षक कीट, उसके
णाद् सीरृह वषं तक्र पारावत योनिका भोग करना होगा |
इस जन्भमें उक्त ध्यक्तिका सित पारावत हो कर किसो
प्रतिष्ठित विष्णुविश्रदर्क पांस हो वास करना पड़गा।
इस अपराधका प्रायश्चित्त है सात दिन तक यावक्र भक्षण
तथा तोन रात सिफे तीन शक्तुपिएड भोजन। इस
प्रकार प्रायश्चित्त करने होसे उसके पाप दूर हींगे।
अधौत वख पहन कर विष्णुपूजादि करना मना है।
इसमें भो अपराध है। अपराधोकेा उन्मत्त हाथो, ऊर,
गदहे, गोदड़, घोड़े, सारड् ओर म्॒गयोनिम्े जन्म लेना
पड़ता है। इस प्रकार सात ज्ञभ्मके बाद अम्तमें मनुष्य
धोनि छाभम हेनेसे वदे विष्णुभक्तं ओर गुणज्न होगा ।
इसोसे उसका अपराध जाता रहेगा । किन्तु इस जन्ममें
ही इस प्रकार अपराध-माचनका प्रायश्चिल है। भक्ति:
युक्त हो कर उसका अनुष्ठान करना पड़गा । इसका
प्रायश्चिश है तीन दिनि यावक भोजन भीर নীল হিল
पिण्याकर भोजन | इसके सिंबरा तोन दिन कणभक्ष हो
कर तथा तोन दिन पायस खा कर बविताना होगा। प्राय-
श्चित्त ढ्वारा पापक्षय होने दीसे मुक्तिका पथ उन्मुक्त
जआायगा। |
दुससरेका वख पहन कर भी विष्णुकी पूजा आदि
नहों करनी चाहिए। फरनेसे अपराधों होना पड़ता है।
इतना ही क्यों इस अपराधके फलसे इक्कोस वर्ष तक सखुग-
थोनिका भोग करमा द्वोता है । पीछे एक जम्म छंगड़ा |
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रह कषर मूख আহ ক্ষাপ্রল হীক্ধহ सपय व्यतीत कगना
होगा। किन्तु इस अपराधसे मुक्ति पानेका प्रायश्चित्त
है । प्रायश्चित्त करते जानेमे विष्णुम अटल सक्ति हो,
थोडा भोजन करे। माघ्र मांसके शुङ्कपक्षोय द्वाद भोके
दिन क्चन्ति, दान्त गौर जितेन्द्रिय भावसे अनन्यमनसे
विष्णुध्यानं मग्न हो जलाशय परर अवस्थान् करे । पी
जव रात बीत जाय जौर सूये उदय हा, तव पञ्चगघ्य ला
फर अचिरौत् सवे कित्पिषसे मुक्त होगे ।
दशान्वित वस्त्र पहनने की ही विधि है। दशाहीन
वख अवैध हैं, वह धर्म-कर्ममें उपयुक्त नहीं होता ।
वस्रविशेष प्रतिगप्रह करने पर उसका प्रायशिवत्त करना
पड़ता है । हारीत क्ते हैं, कि “मणिवासोपवादीनां
प्रतिष्रहे सावित्रएशतं जपेत् ।” 'अप्टसहसत्र अष्टोत्तरसहस्त-
मिति! । ( शुद्धितत्त्व )
कालिकापुराणमें लिखा है--कपास, कोबल, वढ[कल
ओर को्षेयज, ये सब वस्त्र देवोद शसे समन््लक पूजा
करके उत्सगे करेगे । किन्तु जो वख दशाहीन, मलिन,
जीण, छिन्न, परकीय, मू(षकदषए्, सुचोविद्ध, व्यवष्टत, फेश-
युत, अधीत किंवा श्टेष्मा तथा मूलादि दारा दूषित हो,
वैसा वख देवो शमे किंवा दैव वा वैका कम उपलक्षपें
হান करना उचित नहीं । प्रत्युत यं सव वक इन सबं
स्थानोंमें वज्जन करना ही क्तंथ्य है |
उक्त पुराणमें दूसरी जगद्द लिखा दे--उत्तरीय, उत्तरा-
संग, निचोल, मोदचेलक और परिधान नामक पश्चविध
वस्त्र बिना सिलाई किये हुए ध्यवहार वा दान करनेको
विधि है, किन्तु शनसूत्रनिम्मित वख्र, नीशार (मसदरी),
आतपल, चंडातक ( स्त्रियोंकी चोलोके कपड़े ) पवं दृष्य
अर्थात् वखगृदद, ये सब कपड़ सिलाई किये ज्ञाने पर भी
दूषित नहीं होते ।
इसके अतिरिक्त पताका ओर ध्यजञादिमें सिलाई
किये हुए कपड़ ही आवश्यक हैं ।
भिन्न भिन्न देवताओंको पूजञाके कप भिन्न भिम्न
होते हैं। किस देवताकी कोन वस्त्र देना होता है, उसके
सम्बन्धमें कालिकापुराणमें इस तरद्द लिखा हैं--
रक्तवणं कौषेध वख महादेवोको देना प्रशस्त ई,
दसो तरद पीतषणं कोषे वस्र वासुद्रव क्रो, खाल कम्बल
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