चंपारन में महात्मा गाँधी | Champaran Mein Mahatma Gandhi

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Champaran Mein  Mahatma Gandhi by राजेंद्र प्रसाद - Rajendra Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नील द तीन-कठिया---यह्‌ प्रथा चम्पारन में सबसे अधिक प्रचलित है । इसी के अनुसार कोठीवाले यतो से उनकी जोत के एक हिस्से मे नीर पैदा कराते थे ओर एक नियत दाम पीछे से देने की भी शर्ते रहती थी। १८६० के लगभग बीघा पीछे ५ कट्ठे में नील बोया जाता था। कुछ दिनों के बाद, १८६७ के लगभग, यह कम होकर बीघे मे ३ कट्ठे हो गया । तभी से इस प्रथा का नाम तीन-कठिया पड़ा । जिस समय चम्पारन में नीलवाले अपना सिक्का जमा रह थे उस समय जमीन पर इनका कुछ भी अधिकार नहीं था। बेतिया राज से गाँवों का चन्दरोजा ठेका लेकर वे उनमें कुछ नील जीरात की प्रथा से करते थे । परन्तु वह बहुत थोडा था । वे बेतिया राज को लालच मे डालकर गाँवों का जमा जितना वसूल हो सकता था कबूल कर लेते थे ओर अपने लाभ के लिए रेयतों से नीक बुवाते थे । बेतिया राज को बेठ-बेठं माख्गुजारी भिल जाया करती थी । कोठीवालों को भी नील से बड़ा लाभ होता था । बीच में मारे जाते थे गरीब रैयत। इससे यह स्पष्ट है कि जब कभी कोई गाँव कोठी के कब्जे में आता था तो कोठी की यही चेष्टा रहती थी कि उसमें जहाँ तक हो सके नील की खेती करायी जाय । इसके लिए वे भोले-भाले रैयत को समझाकर, भुलाकर, फ्सलाकर, मिलाकर और दबाकर उन्हें अपने ही खेतों में नील बोने को बाध्य करते थे। कुछ दिनों के बाद जिन शर्तों पर रेयत नील बोया करते थे वे एक सट॒टे के रूप में लिखी जाने लगीं। उसमें लिखा जाता था कि रेयत अपनी जोत के बीघा पीछे तीन कटे में कई वर्षों तक (कभी-कभी २०-२५-३० वर्षों तक भी ) नील बोया करेगे । किस खेत मे नील बोया जायगा वह कोठी के कर्मचारी चुनेंगे । खेत को तेयार करना रैयत का काम रहेगा पर इसकी निगाहबानी कोठी करेगी । नील की फसल खूब अच्छी होने पर एक नियत मूल्य बीघा पीछे दिया जायगा । यदि फसल अच्छी नहीं हुई, चाहे वह किसी भी कारण से क्यों न हो, रैयत को कीमत कम मिलेगी। यदि रैयत शर्त के विरुद्ध नील न बोवे तो उससे एक बड़ी रकम हरजाने के तौर पर वसूल की जायगी । ऐसा प्रमाण पाया जाता है कि जब से नील की खेती चम्पारन में आरम्भ हुई है प्रायः उसी समय से जीरात तथा असामीवार प्रथाएँ जारी हैं । पहले कहा जा चुका है कि रुरू मे बीघा पीछे ५ कट्‌ठे नीर करना पडता था ओर सन्‌ १८६७ के बाद वही ३ कट्‌ठे कर दिया गया। सन्‌ १९०९ में नील वालों ने अपती सभा में एक नियम बनाया कि बीघा पीछे केवल दो ही कट्ठों में नील पेदा कराया जाय । पर यह मालूम नहीं कि इस नियम के अनुसार कितनी कोठियों ने कार्रवाई की । इतना अवश्य हैं कि कितनी ही कोठियों ने इस नियम का पालन नहीं किया, और बहुतों को इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी । इसके कारण पीछे लिखे जायेंगे । इसी प्रकार नील का दाम भी नीलबर सरकार ओर रेयतों के दबाव से जब-तब बढ़ाये गये । सन्‌ १८६७ के पहले रेयतों को फी एकड़ नील के लिए ६॥) रुपये मिलते थे । उस साल की हलचल के बाद सरकार के दबाव से नीलवरों ने उस रकम को बढ़ाकर ९) रु० कर दिया। वही रकम १८७८ में १०८०), १८९७ में १२) और




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