पंचदश लोकभाषा निबंधावली | Panchdash Lokbhasha -Nibandhawali

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Panchdash Lokbhasha -Nibandhawali by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( < 9) लम्बे कथात्मक काव्य के रूप में चौपाइयों ओर दोहों में कथनोपकथन होता था; कहीं-कहीं उचित गानों का भी समावेश रहता था। मंगलाचरण, परतरे गीत ( जिसमें नाटक के समस्त पात्रों का परिचय और गणना होती थी ), गीतमथ अथवा चौपाईमय कथनोपकथन--यही इनका क्रम होता था | कीर््तनिया नाठककारों को टीन कालों में विभक्त किया जा सकता है---१३४०-१७०० तक, १७००-१६०० तक और १६००-१६२० तक । पहले काल में विद्यापति का गोरक्षविजय', गोविन्द कवि का 'नलचरितनाट', रामदास का आनन्द-विजय”, देवानन्द का 'उपाहरण', उमापति का पारिजातहरण” और रमापति का 'रुक्मिणीहरण” आदि गिने जा सकते हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध उमापति हुए। इनके ही आधार पर कौत्तनिया अभिनेताओं का साधारण नामकरण किया জানা ই। दूसरे काल के मुख्य नाटककार हँ--लालकबवि, नन्‍्दीपति, गोकुलानन्द, जयानन्द, श्रीकान्त, कान्हाराम, र्नपाणि, भानुनाथ और हृर्षनाथ । इनमें लालकवि का गौरीस्वयंवर', नन्‍्दीपति का 'कऋृष्णकेलिमाला', कान्हाराम का गौरीस्वयंवर' और हृषनाथ का 'उषाहरण” तथा 'माधवानन्द' अधिक प्रसिद्ध और साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । तीसरे काल के लेखक विश्वनाथ मा, ब्रालाजी, चन्दा झा और राजपंडित बलदेव मिश्र हैं। इनके नाठकों में प्राचीन कबियों के गानों और पदों की ही पुनरुक्ति अधिक है । नाठकीय संघर्ष का अभाव है और कीत्तनिया के बुझते दीपक के क्षुणिक आ्रालोक का आभास है। मध्यकाल--(३) सोलहबीं और सन्नहवीं शताब्दी में मैथिली नाटक का एक विकास आसाम में भी हुआ, जिसको 'अंकिया नाट' कहते हैं | यह उपयुक्त दोनों नाठकों की परम्पराओं से भिन्न प्रकार का हुआ। इसमे लगभग सम्पूणं नाटक गद्ममय द्वी होता था। सूत्रधार पूरे नाटक में अभिनय करता था। अभिनय से अधिक वर्यान-चमत्कार या पाठ की ओर ध्यान था। इन नाठकों का उद्देश्य मनोविनोद नहीं था, प्रत्युत वेष्णब-धर्म का प्रचार करना था। अधिकतर ये नाटक कृष्ण की वात्सल्यमय और दासत्वरूप মান- पूर्स लीलाओं का वर्णन करते थे। इनमें एक से अधिक अ्रंक नहीं होते थे । “अंकिया नाटकारों” में शंकरदेव (सन्‌ १४४६-१५४५८ ई०), माधवदेव और गोपालदेव के नाम उल्लेखनीय हैं । इनमें सबसे प्रसिद्ध शंकरदेव हुए। इनका रुक्मियीहरणु' आसाम में सबसे अधिक लोकप्रिय नाट है | 'मध्यकाल--(४) अन्य प्रकार के साहित्य का मध्यकाल में गौणश स्थान अवश्य है, परन्तु हे ही नहीं, ऐसी बात नहीं। स्वतंत्र गद्य का कोई विशेष मन्थ नही है और न . उसमें कोई विशेष साहित्यिक परम्परा चली, परन्तु प्राचीन दानपतन्न तथा अन्य प्रकार के पत्र आदि मिलते हैं, जिनसे मेथिली गद्य के स्वरूप का विकास जाना जा सकता है। इनमें उस समय की “बहिआ (भृत्य)-प्रथा'-सम्बन्धी विषयों का पूर्णा ज्ञान होता है।




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