मध्यकालीन साहित्य में अवतारवाद | Madhyakalin Sahitya Mein Awatarwaad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) , फिर भी उन कृतियों का मैं उपकृत हूँ। इस क्रम में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पुस्तकालय, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी विद्यापीठ, सरस्वती भवन, गोयनका विश्वनाथ पुस्तकालय, पठना स्थित बिहार रिसर्च सोसाइटी, पटना विश्वविद्यालय पुस्तकालय, सिन्हा लाइब्रेरी, खुदाबख्श खां लाइब्रेरी और बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्‌ के व्यवस्थापकों का भी उनको अयाचित सहायता के लिए मैं चिर कृतज्ञ हूँ । आदरणीय परीक्षक-द्य डा० बाबुराम सक्सेना और डा० नगन्‍द्र (अध्यक्ष हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय ) ने मेरे प्रबन्ध में जिन तथ्यों की ओर संकेत ,किया था निःसन्देह उनके आदेशानुसार परिवर्दडन और परिमार्जन करने के फर्लस्वरूप यह प्रबन्ध अधिक साज्भोपाड़ हो सका है। उन्होंने मेरे परिश्रम को जिन आशीर्वादों से संवलित किया है उन्हें मैं सदेव श्रद्धानव होकर ग्रहण करने के लिए उत्सुक रहा हैँ। आदरणीय परीक्षक ने अवतारवाद के मनोवैज्ञानिक अध्ययत की ओर जो संकेत किया था उसे अन्त में मैंने अपने पुनः तीन वर्षों के परिश्रम से पुर करने का प्रयास किया है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वर्षों की इस अनवरत साधना ने अधिक नहीं तो कम से कम मध्ययुगीन साहित्य के लिए अनेक नए .शोध-विषयों का श्रीगणेश ' किया है। इस शोध के क्रम में मुझे ऐसा लगा कि पचास विषयों पर तो स्वतंत्र अनुसंधान के लिए इसमें पर्याप्त सामग्री है । मध्ययुगीन साहित्य पर यों तो बहुत पुस्तकें निकली हैं, किन्तु वेज्ञानिक दृष्टि उनमें से बहुत कम में ही आ पायी है। अवतारवाद पर हिन्दी या अंग्रेजी में इस प्रकार की पहली पुस्तक होने के कारण मुभो अवतारवाद का' विस्तृत सवक्षण करना पड़ा है। इसी कारण से मुझे किसी व्यक्ति के खंडन या मंडन करने का अवसर भी नहीं मिल सका। साहित्य के क्षेत्र में मनोवेज्ञानिक हृष्टि से अवतारवाद यदि प्रतीकवाददहै तो सौन्दयंशाल्ञीय दष्टिसे 'रमणीय बिम्बवाद' जिनकी वेज्ञानिक स्थापना के लिए मेने विस्तारपूर्वक विचार किया है। सार रूप में यही कहा जा सकता है कि अवतारवाद सक्रिय जीवन-दर्शन का सिद्धान्त है। संघर्ष ओर शान्ति ( दुष्ट-दमन और लीला ) दोनों स्थितिप्रों में वह मानव-मुल्यों का द्योतक एवं प्रबल जीवनेच्छा की प्रवृत्ति का सुचक है । विगत दस वर्षो से अन्य कार्यों को छोड़कर तन-मन-धन से इसी पुस्तक मे लगे रहने का परिणाम क्या निकला इसे तो गहरौ पेठ रखने वाले ही बता सकते है । अनेक अभावों से ग्रस्त होते हुए भी मुझे एक ही बात का संतोष है कि मैं भारती हिन्दी की सेवा करता हूँ। मैं इस पुस्तक की चुटियों और कुछ चौंकाने वाली अशुद्धियों के लिए विवेकी पाठकों से क्षमा चाहता हूँ । ০ ৩০ ব্ব্‌ণ




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