सूरसागर में अप्रस्तुत योजना | Sur Sagar Mein Aprastut Yojana

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Sur Sagar Mein Aprastut Yojana by बेनी बहादुर सिंह - Beni Bahadur Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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লা ~ শোকে ४०२० 18 ০ ৮555 9 @ सूरसागर ओर अग्रस्तुतयौ जना|६ » रचनाएं शायद वल्लभाचाये के सम्पर्क में आने से पूव ही कवि ने की हो । अत- “क्थावस्तु के विवेचन से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी अर्थ में सूरसागर भागक्त का अनुवाद नहीं कहा जा सकता और न सम्पूर्ण भागवत की यथातथ्य कथा केना ही कवि करा उह श्य जाल पडता है) |” सूरतागर का सबसे महत्त्वपुर्ण विषय #ष्णलीला है। यह लीला कुछ स्फुट पदौ द्वारा और कुंछ प्रवाहिक पदों द्वारा निर्मित है । स्फुट पद कृष्ण के बीशव, बाल्य और किशोर काल की विभिन्‍न दिनचर्यायों से सम्बद्ध हैं । चन्द्र-प्रस्ताव, माखनचोरी, ग्रीष्मलीला, यमुना-विहार, अबु राग समय, आंख समय के पद, नैन समय के पद, फाम- हौली तथौ पतता, शकटासुर, व्योमासुर, घेन, वृषभ, केशौ, मौमामुर आदि कै संहार सम्बन्धी पदों का रसास्वादन स्फुट पदों के रूप में किया जा सकता है | प्रवाहिक पदों के अन्तर्गत यमलाजु न-उद्घार, राधा-कृष्ण प्रथम-मिलन, कालीदमन, चीरहरण, पन्रव८- प्रस्ताव, गोवद्धल-धारण, दानलीला, रासलीला, मानलीला, खण्डिता-समय, बसन्‍्त- लीला, उद्धव-ब्रज आगमन, अ्रमरगीत आदि प्रसंग हैं । सूरसगर की कृष्णलीला दो धाराओं में विभाजित शै--एक में कृष्ण के अलौकिक कार्यो का वर्णन है, जो पुतता-वध से आरम्भ होकर कंस-वध में समाप्त होती है। दूधरी धारा में कृष्ण के रंजक कार्यों का वर्णन है, जो राधा-कृष्ण प्रथम मिलन से प्रारम्भ होकर अमरगीत में समाप्त होती हैं। यही दूसरी धारा सूरदास की प्रतिभा की सक्ची कसौटी है । कृष्ण की इत क्रीड़ाओं का विकास! त्तीन दिशाओं में होता है--एक और नबद-यशोदा तथा अच्य बृद्धों में कृष्ण के प्रति स्नेह-बुद्धि होती हैं; दूसरी ओर ग्वालबालों में प्रेममाव बढुता है और तीसरी ओर गोपियों में रति भाव जाग्रत होता हैं। प्रेम के इन तीनों रूपों के चरूम विकास के साथ जहां.एक ओर सूर की परमभक्ति प्रदर्शित होती है, वही दूसरी ओर काव्यकला की दृष्दि से भी ये पद अतुलनीय हैं। संयोग में विनोद और रंजन तथा वियोग में दुःख और पीडा की जभि- व्यक्तित सूर ने जिन शत-सहस्त भावों, बिम्बों और अग्रस्तुतों के माध्यम से की है, वह आज तक सचमुच बेजोड़ है । भधुरसागर का दूसरा महत्त्वपूर्ण विषम विनय है | इन पर्दों में सूर का कृष्ण के अति पूंणे आत्मसमपेण है । संसार की अवारता के चित्रण द्वारा वैराग्य-मावना को अबल किया गया है तथा भक्ति की अनिवार्यता सिद्ध की गई है। सन को भक्तित की ओर खीचने के लिए सत्संग महिमा और हरि-विशुखों की निन्‍दा की गई है। यूर ने ससार के सभी दोषों को अपने धर ओढुकर विनय की चोंटी पर पहुँचा दिया हैं। १ डा० जजद्वर्‌ वर्मा सूरदासः पू० १०२ १०४1




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