भारतीय दर्शन में प्रामान्यवाद का समीक्षात्मक विवरण | Bharatiya Darashan Mein Pramanyawad Ka Sameekshatmak Vivrana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रक्रिया ही बदल दी। गंगेश की उपलब्धि दर्शन के इतिहास में अद्वितीय है। सम्पूर्ण मध्यकाल के शास्त्रीय इतिहास में ऐसा कोई लेखक नहीं हुआ जिसकी कृति ने इतना प्रभावित किया हो जितना केवल एक “ढतत्त्वचिन्तामणि! ग्रन्थ ने प्रभावित किया है। “तत्त्वचिंतामणि! चार भागों में विभाजित है, इसमें चार प्रमाणों का- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चार खण्डों में विवेचन है। इनकी प्रतिज्ञा ही थी कि “'प्रमाण ततत्वमत्र विविच्यते इसीलिए नव्य-न्याय को प्रमाणशास्त्र कहा जाता है। गंगेश का अध्ययन प्राचीन न्‍्यायदर्शन तथा मीमांसा के प्रभाकर संम्प्रदाय से प्रभावित था। इनके मुख्य प्रतिद्वन्दी प्रभाकर मीमांसक थे। गंगेश के समय मिथिला में प्रभाकर का विशेष प्रभाव था। तततव-चिन्तामणि पर वर्धमान की प्रकाशः तथा पक्षधर मिश्र की “आलोक' नामक टीकाएं विशेष रूप से प्रसिद्ध दहै। गंगेश वर्धमान तथा पक्षधर मिश्र के ग्रन्थो पर मिथिला में अनेक टीकां लिखी गयी, जिन्मे नव्य-न्याय की “मिथिला-शाखा' उत्पन्न हुई है। फिर पक्षधर मिश्र के शिष्य वासुदेव सार्वभौम ने नवद्वीप मं लगभग 1600 ई. म नव्य-न्याय कौ दूसरी शाखा का सूत्रपातत किया जिसे “नवद्वीप-शाखा”' कहा जाता है रघुनाथ शिरोमणि, जगदीश तकलिङ्कार तथा गदाधर भट्राचार्य इस शाखा के श्रेष्ठ नैयायिक ই। रघयुनाथ शिरोमणि ने तततव चिन्तामणि पर *दीधिति* नामक टीका लिखी है। गदाधरभटाचार्य ने इस दीधिति पर जो टीका लिखी है उसको उन्हीं के नाम पर 'गदाधरी' कहा বানা ই जगदीश तकालडकार ने दीधिति पर “प्रकाशिका नामक टीका लिखी है जिसे प्रायः 'जागदीशी' कहा जाता है। दीधिति, जागदीशी ओौर गदाधरी नवद्रीप के नव्य-न्याय के तीन श्रेष्ठ ग्रन्थ हैं।




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