महाकवि वेड्कताध्वरिप्रणीत विश्वगुणादर्शचम्पू का साहित्यिक अध्ययन | Mahakavi Vedkatadhvaripranit Vishgunadarshchampu Ka Sahityik Adhyayan

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Mahakavi Vedkatadhvaripranit Vishgunadarshchampu Ka Sahityik Adhyayan  by सीमा अग्रवाल - Sima Agraval

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2* कीटप-स्वरूप कवनीयं काव्यं अर्थात्‌ जी क्वनीीय अध्वा वर्णनीय है, वह काव्य है | भिन्न-भिन्न विद्वान ते काव्य के स्वरूप पर पृथक्‌-पृथक्‌ मत व्यण्त कि दै । जित आचार्य को काव्य का जो स्वरूप उपयुक्त लगा उत्ता को उत्तने काव्य की आत्मा कह डाला | काव्य के उपर विचार करते हूर पण्डितदाज जगन्नाथ ने शब्द कौ शक्ति को महत्त्वपूर्ण माना है । उनके भनुत्तार ~ वह शब्द जौ रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करे, काव्य है । । पाण्डितराज जगन्नाथ जी को काठ्य की इस परिभाषा में जहाँ तक रमणीयता का सम्बन्ध है, उत्तके लिये कविराज माल को ऊधीलिखित पॉक्तियों को उद्ध्वुत कर देना पर्याप्त है - “क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव सूप रम्णौयताणः ।2 कतिपय आचार्य ने अलद्स्कार को काव्य का अनिवार्य अक्ल নানা ই | भामह तथा दण्डी अलछूकारों को काव्य का प्रधान गुण मानते हैं । इनके बिना काव्य नहीं माना जा सकता । भामह ने कहा है कि - 'तुन्दर होने पर भी 3भरणहीन कामिनीमुत्र सुशोी भित नहीं होता 1 : ज शनि पतो शो ये पणे चि त निमि भिम साति द भोदि कि शमः विदि थने दि ति पि जितः निः भोमि पे ति सि पि यः ज को प पि वोः शि शो को जि सतः कि वः कः पिः शो, सनद दोः म शकः किम्‌ भ सोति जि) सोति पीतो जिका, कति चि आया সা আন গর ওর পা आओ |. रमणीयार्धक्प्रतिपाटकः शब्दः काव्यम्‌ - रस भंद्ाध्र ~ द्वितीय आनन»पृष्ठ सख्या 19५. 2. न कान्तमपि निरू विभाति बनितामूघम्‌ । - कालव्यालद्कार, 1८13.




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