नाट्य लेखन और रंगमंच रेडियो और दूरसंचार नाटक के विशेष संदर्भ में | Natya Lekhan Aur Rangmanch Rediyo Aur Durasanchar Natak Ke Vishesh Sandarbh men

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Natya Lekhan Aur Rangmanch Rediyo Aur Durasanchar Natak Ke Vishesh Sandarbh men  by सुरेन्द्र कुमार - SURENDRA KUMAR

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विधा मानकर जिन्होंने अपनी लेखनी चलाई है , इस दिशा में उन नाटककारों का अधिक योगदान है जो आदर्शोन्मुख यथार्थ के अधिक निकट रहे हैं । नाटकों में नैतिकता-स्वर मुखर है और विकृत तथा विरूपता की अपेक्षा सदाचार तथा सुरूचि - सम्पन्नता को उजागर करने का यत्न किया जाता है। लोक रूचि का परिष्कार करने की ओर नाटककारों का ध्यान केन्द्रित रहा है । वास्तव में नाट्य साहित्य जीवन का दर्पण ही नहीं , दीपक” भी है । मानव जीवन को ही उसका प्रमाण परिधि मानकर साहित्यकार उसमे सर्जनात्मक शक्ति का संचार करता है । संस्कृत साहित्य में नाटक की गणना काव्य विधा के अर्न्तगत की गयी है , किन्तु हमारे प्रमुख नाटककारों ने उसे नृत्य, संगीत, संवाद ओर अभिनय से युक्त ठहराया है । हिन्दी नाटकों का प्रारम्भिक समय हिन्दी नाट्य रचना की दृष्टि से उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्य महत्वपूर्ण है । इसी समय अंग्रेजी साहित्य से भी सम्पर्क हुआ साथ ही भारतीय पुनरूत्थान की भावना से प्रेरित होने के फलस्वरूप हिन्दी के साहित्यकारो ने नाट्य रचना की ओर ध्यान दिया, जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सन्‌ 1850 - 1885 20 | अग्रगण्य रहें ; मौलिक ओर साहित्यिक नाट्य परम्परा मे हिन्दी के प्रथम नाटककार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही हैँ ओर उनका वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति 1873 ६0 हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक कहा जा सकता है । कुछ आलोचकों के अनेक त्रुटियों -के बावजूद भी रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह _{1789-1854 ई0 | के आनन्दरघुनन्दन को हिन्दी का प्रधान मौलिक नाटक स्वीकार किया है । ब्रजभाषा में ही भारतेन्दु শী জি দিলা “गोपालचन्द्र “ का नहुष | 1841 {0 | मिलता हे; , पर “खड़ी बोली मेँ युग बोध के साथ मंचीय तत्वों के समावेश




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