राम कृष्ण - विवेकानन्द भावधारा का द्विवेदीयुगीन हिन्दी साहित्य पर प्रभाव | Ram Krishn - Vivekanand Bhavadhara Ka Dwivediyugin Hindi Sahity Par Prabhav
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
270
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गिरिजा प्रसाद मिश्र - Girija Prasad Mishr
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)७
पीठ दक्षिणेश्वर लौट आये । यहँ।पहुँच कर उन्हेने पूजा के दायित्व को पुन. सम्भाल लिया । नाना
प्रकार की साधनाएं भी साथ ही साथ चलती रही । थोडे ही दिनों मे उनका वही पुराना उन्माद तीव्र
रूप मे उमड़ पड़ा । फिर वही गा्रदाह फिर वही अस्थिरता.छाती सदा लाल रहती,अपलक दृष्टि से
निरन्तर मों - मँ का करुण कन्दन करते हुए रोते रहते थे ।
काली मन्दिर की प्रतिष्ठात्री रानी रसमणि उनके दामाद मथुर बाबू और मन्दिर के
कर्मचारियो की रामकृष्ण की यह दशा देख कर विस्मय की सीमा न रही । विवाह के बाद तो मन
शान्त हो जने की बात थी पर यहो तो उल्टा ही हो गया । रामकृष्ण के प्रति मधुर बाबू के अतिशय
श्रद्धा व भक्ति रखने के कारण कलकत्ते के सर्वोत्तम वैद्य गंगाप्रसाद सेन की चिकित्सा का प्रबन्ध
किया गया । नाना प्रकार की चिकित्सा चली परन्तु कोई लाभ नही हुआ । रोग के लक्षणों को समझने
के बाद वैद्य ने देखा कि यह तो दिव्योन्माद की अवस्था प्रतीत होती है । यह योगज विकार है जो
योग साधना के फलस्वरूप उत्यन होता है । यह चिकित्सा से ठीक नही होगा ओर हुआ भी वेसा
ही । वीमारी टूर होने की बात तो टूर रही उसमे क्रमश वृद्धि ही होती गयी ।
वेदों की वाणी है भातृ देवो भव पितृ देवो भव रामकृष्ण की मातृभक्ति
असाधारण थी । वे अपनी गर्भधारिणी मो चन्दमणि देवी की देवी बोध से सेवा किया करते थे ।
दक्षिणेश्वर मे रहते समय प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर वे सर्वप्रथम नौबत खाने मे जाकर अपनी माता
को प्रणाम करते, तत्पश्चात कुशल प्रश्न पृछ कर थोड़ी देर तक उनके पास बैठते, फिर मन्दिर में
भवतारिणी काली का दर्शन करने जाते । मझले भाई रामेश्वर के देहावसान के बाद वे अपनी शोक
सन्तप्त मों को कामारपुकुर से दक्षिणेश्वर ले आये थे और तब से आजीवन उन्हें अपने पास ही रखा
था । माँ के मर को आघात न पहुँचे इस लिएं उन्हेंने छिपकर संन्यास ग्रहण किया था । वृन्दावन में
साधिका गंगा माता के विशेष अनुरोध पर वे वहाँ यह सोच कर अधिक दिन तक नही रह सके कि
दक्षिणेश्वर में उनकी माँ को उनकी अनुपस्थिति में कष्ट होगा । माया मोह से परे विज्ञानी की
अवस्था में प्रतिष्ठित होते हुए भी वे माँ के दिवंगत होने पर अधीर होकर रोये थे । वे शास्त्र विधि के
अनुसार संन्यास लेकर सन्यासी हो गये थे ओर सन्यासी को माता - पिता की अन्त्येष्ट किया मे
अधिकार नही होता है । अतः उन्होने गंगा जी मेँ खड होकर अश्रुनीर से माता का तर्पण करते हुए
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