प्राचीन भारतीय कलात्मक एवं साहित्यिक परंपरा में पेड़ - पौधे और वनस्पतियाँ | Prachin Bharatiy Kalatmak Avam Sahityik Parampara Men Ped - Paudhe Aur Vanaspatiyan

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Prachin Bharatiy Kalatmak Avam Sahityik Parampara Men Ped - Paudhe Aur Vanaspatiyan  by हरिनारायण दुबे - Harinarayan Dubey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( 10) जैसे विद्वान शामिल हैं। सभी ने एकमत से यह स्वीकार किया है कि वक्ष-वनस्पतियों में प्राण तत्व का सिद्धांत वैदिक-काल से ही प्रचलित था। क्रुक्स के अनुसार सूक्ष्म प्राण एक शक्ति है जिसे जीवन का आधार कहा जा सकता है। इसी शक्ति से शरीर के समस्त भीतरी और बाहरी व्यापार संपन्न होते है। वनस्पतिशास्त्रियों ने इसके लिये यैग्नेटिज्म- चुम्बकत्व, वाइटिलिरी -प्राणशक्ति ओर वाइटल फोर्स-प्राण आदि पारिभाषिक शब्दं का प्रयोग किया है। वनस्पतियों के शरीर में प्राण, अपान, उदान, व्यान ओर समान ये 5 प्राणं काम करते हैं । उनमें शब्द, स्पर्श, रुप, रस ओर गंध कौ अनुभूति होती ठे । उष्मा से न केवल पुष्प एवं फल मुरझा जाते हैं अपितु पत्ते व शाखाएँ भी प्रभावित होते हैं। इसी तरह इन पर शीत का भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वृक्ष-वनस्पतियों को स्पर्श ज्ञान भी है। वे शब्द ग्रहण करते एवं समझते हैं। उन पर संगीत एवं भावनाओं का व्यापक प्रभाव पड़ता है। लतायें वृक्ष को आवेष्टित करते हुए आगे बढती हैँ अतएव उनमें दृष्टि भी ठै ।1 वैशेषिक दर्शन के अनुसार पेड़-पौधों को पंचतन्मात्राओं से युक्त माना गया है। जड़ समझे जाने वाले वृक्षों के कार्य व्यापारों को अनुप्रेरित करने वाले प्राण चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। वनस्पतिशास्त्रियों ने प्रोटोप्लाज्य को जीवन का भौतिक आधार माना है जो निर्जीव वस्तुओं मे नहीं होता। वृक्षों में जीवों की तरह ही प्रोटोप्लाज्म होता है जो उनके प्राणचेतना से संपन्‍न होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। विकासवादी वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के अनुसार समूचा जंतु एवम्‌ वनस्पति जगत बहुत सरल एवं निम्न श्रेणी के जीवधारियों एवं वनस्पति से विकसित होते-होते विकास की इस अवस्था में पहुँचा है। इस प्रकार जब हम विकास मार्ग को खोजते हुए पीछे जाते हैं, तो पौधों तथा जानवरों के आदिम रूप पर पहुँचते हैं। डार्विन का मानना है कि इस स्तर पर पौधों तथा जंतुओं में कोई अंतर नहीं था और तब दोनों का मूल एक ही था। कालांतर में किन्हीं कारणों से इन मूल प्राणियों का विकास दो दिशाओं में हुआ जिससे वनस्पति एवं जन्तु का प्रादुर्भाव हुआ। तात्पर्य यह कि डार्विन ने भी अपने विकासवादी सिद्धांत की प्रक्रिया में वनस्पतियों को प्राणयुक्त माना है 2 अभी हाल ही में किये गये एक शोध से पता चला है कि पेड़-पौधों के पास भी बिल्कुल मनुष्यों जैसी ही अपनी रक्षा प्रणाली होती है। जब कोई इनके पत्तों को तोड़ता है या किसी अंग को नुकसान पहुँचाता है तो वे इसका प्रतिरोध करते हैं। इसे “प्रेरित प्रतिरोध” की संज्ञा दी गयी है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओ के अनुसार हम पेड़ों की प्रतिरोध प्रणाली में अगर व्यवधान न करें तो पेड-पौधो का प्रतिरोध कौडो-मकोडों से मुकाबला करता रहता हे । पत्तियों पर इल्ली के बेठते ही पेड-पौधे पत्ती के ऊपर जेस्मोनिक अम्ल की मात्रा बदा देते हैं । इस अम्ल से पत्तौ पर एक ऐसा रसायन पैदा होता है जिससे इल्ली या अन्य कौड-मकोडे भाग खड होते हैँ । इस प्रेरित प्रतिरोध कौ मदद से पौधे अपनी पत्तियों कौ रक्षा करते है। 1 अखण्ड ज्योति, मथुरा, मार्च 1997, पृ० 9-10। 2 वही, पृ० 10।




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