संस्कृत - छंन्दोविधान का सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक विश्लेषण | Sanskrit-chhandovidhan Ka Saiddhantik Avam Prayogik Vishleshan

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Sanskrit-chhandovidhan Ka Saiddhantik Avam Prayogik Vishleshan by हरिदत्त शर्मा - Heeradatt Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छन्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ एव स्वरूप - छन्द सस्कृत-वाड्‌मय का मेरुदण्ड है | छन्द की आधार भूमि पर प्रतिष्ठित होकर सस्कृत-काव्य व्यवस्थित रूप से गतिमान्‌ हुआ है । छन्द को वेद का पादद्वय माना गया है। वैदिक वाङ्मय मे छन्द' के विविध अर्थ देखने को मिलते हैं। ब्राह्मण ग्रथो मे 'सूर्यरश्मि अर्थ मे छन्द का प्रयोग है।' पुराणो में भी सर्वत्र सूर्य के प्रसिद्ध सात अश्वरश्मियाँ ही 'छन्‍्द' से सडकेतित हैं | ब्राह्मण ग्रन्थों मे छन्‍्दों को प्राण की सञ्ज्ञा दी गयी है इसके अतिरिक्त उन्हे रस तथा गायल्यादि छन्दः सप्तक को अग्नि के प्रिय सात धाम भी बताया है। इस युग मे हम देखते ह कि छन्द का महत्त्व इतना व्यापक हो गया था कि उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे समावेश होने लगा, फिर उसे सूर्य की किरणै, अग्नि के धाम, प्राण, रस आदि के रूप में माना जाने लगा। परन्तु लौकिक वाङ्मय मेँ छन्द के पद्य, वेद, इच्छा, सहिता आदि अर्थ प्राप्त होते है ।“ कोश ग्रन्थो मे भी छन्द के विविध अर्थं समुपलब्ध होते है । अमरकोश मँ छन्द के पद्य तथा अभिलाषा अर्थ बताये गये हैँ / मेदिनी कोशकार ने छन्द के चार अर्थ बताये है पद्य, वेद, स्वैराचार तथा अभिलाषा कोशग्रन्थो मे छन्द का अर्थं प्राय पद्य ही उपलब्ध होता है, जो कि लोक मे भी मान्य है। अत छन्द का अर्थ नियम विशेष के तहत की गयी शब्द-योजना ही अमिप्रेत है। प्राचीन सस्कूत वाङ्मय मेँ इसके विविध १ एष वै रश्मिरन्नम्‌ शतपथ ब्राह्मण ०,८५.८३३ छन्दोभिरश्वरूपै' वायुपुराण ५२४५, छन्दो रूपैश्च तैरश्वै, हयाश्च सप्त छन्दासि, विष्णुपुराण २८८७ े प्राणा वै छन्दासि, कौषीतकि ब्राह्मण ६८६ ५ शतपथ ब्राह्मण ६२२३८४४ माध्यन्दिन सहिता १७७६ की व्याख्या ५ इच्छा सहितयोरर्षि छन्दोवेदे च छन्दासि काशिका १८२३६ १छन्द पद्येऽभिलाषे च, काण्ड-२, वर्ग-३ पद्य-२३२ *» छन्द पद्ये च वेदे च स्वैराचाराभिलाषयो सत्रिक-१७१, पद्य-२२




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