आर्य्य संस्कृति और आर्य्य साहित्य | Aryya Sanskriti Aur Aryya Sahitya

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Aryya Sanskriti Aur Aryya Sahitya by श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी - Shri Shantipriy Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य चिन्तन अनुभूतियों में अठखेलियाँ करता है, उन्हें बॉध पाना नते चित्र की सीमा केलिए सहज है, न सङ्गीत की स्वर-लिपियें के लिए । জা “कहन-सुनत की बात नहि', लिखी-पढ़ी नहि' जाय” चसे भी काव्य, भाषा के सङ्कतां से, प्रकाशित करते का प्रयत्न करता है | अलंकार भावों के सुष्ठु रूप में रखने के लिए एक साधन है। सपमाजिक परम्पराओ की भाँति इसे भी एक रूढ़ि बना देने से काव्य का स्वाभाविक विकास रुक जाता है। यह ठीक है कि “भावों का उत्फष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीत्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक दे।नेबाली युक्ति ही अलझ्लार है।” यह युक्ति केवि की सहज सूझ से ही अपने के साथक् कर सकती है। अलझ्डार का महत्त्व अथ-चमत्कार में नहीं, बल्कि भाव-गास्भीय्य में है । एक रूपक ( अलंकार ) द्वारा रवीन्द्रनाथ कितने ही गम्भीर रहतस्य- वादी भावों की अबतारणा कर देते ই। काव्य के चरिगुण ओर त्रिमृत्ति--काव्य के सम्पन्न बनाने- वाली बस्तुएँ हैँ--बविभूति, श्रो, ऊूजे । विभूति में विविध भावों का विपुल्-वित्तार, श्री में कोमल कान्त पद-माघुरी, ऊजं में पैरुष का ओज सन्निहित है | जिस प्रकार ये काव्य के त्रिगुण है, उसी प्रकार काव्य की त्रिमूत्ति ये है--भावना, चिन्तना, सूति । ये अनुभूतिके ही त्रिविध स्वरूप है । भावना में विष्णु की मनोहरता है, चिन्तना ह




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