श्री अमर भारती | Sri Amar Bharti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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माता मरुदेवी का जीवन आप देखिए। वह ऐसी ही एक रगड़ से सहसा प्रज्वलित होता दिखाई देता है। चलते-चलते कुछ ही क्षणों मे वह मजिल पर पहुँचती दिखाई देती है। वह हाथी के होदे पर बैंटी है और जारही है। कहाँ ? भगवान्‌ ऋपभदेव के दर्शन करने के लिए ! दर्शन शब्द तो हमारी भाषा में है, वह तो जा रही है अपने पुत्र से मिलने के लिए। वह़ उन्हें भगवान्‌ के रूप में नहीं, अपित्‌ पत्र के रूप में देख रही है। बटत समय हो गया, पत्र से मलाकात किये। भरत को बार-बार उसने उलाहने दिए करि-- त्‌ अग्ने पिता की खबर नहीं ले रहा है! वह कहाँ सूने जंगल में घूम रहा होगा, भूख-प्यास में उसकी कौन सुधि लेता होगा ? कहाँ सोना होगा ? कहाँ ठहरता होगा ? कौन उसके साथ है ? उसे क्‍या कष्ट है? आदिबाते भरत में वह प्रा करती थी। उसके हृदय पें ऋषभदेव के प्रति भक्ति नहीं, वल्कि मातत्व का प्यार छल्नक रहा जब भगवान्‌ ऋपनदेव केवन्य प्राप्त करके अयोध्या में आये ओर सम्राट्‌ भरत को सूचना मिली, तो उर्हने--षकय- कहलसाता मम्देवी को सूचना दी - दादी ! तुम जो फिलानी. के किए. व रि« बार पूछती रहती थीं, वे आपके पुत्र आज अयोध्यां-नगरी में आगेफ हैं, चलो उनसे मित्नने के लिए ।” वक्त फिर. कथा देर थी, मरुदेवो हाथी के हौदे पर बैठकर चल पड़ी, पत्र से मिलने के लिए। उसके: पास 'प्रभ दर्शन की भाया नहीं थी #भोाया क्‍या, भांव॑ना भी नहीं थी । भगवान्‌ के कंवल्य की बात भी उसकी समझ में नहीं आरही थी । जब नगर के बाहर आई और देव दृन्दुभियौः कीं 'मघुर“ईवरनि सुनी, पुष्पवृष्टि होती देखी, समवेपरण की चना देखी, भौर असंख्य देवी-देवताओं को स्वर्ग से धरती पर अत्ते देखा, तो वहू चकित हो गई ! भरत से पूछा--“अरे भरत ! यह सब क्या होरहा है ” तो भरत ने बताया-- “कि यह सब आपके पुत्र का ऐश्वयं है उन्हें कंत्रल्य ज्ञान प्राप्त हुआ है, और उसका उत्सव करने के लिए ये करोड़ों देव, दानव और मानव एकत्र हो रहे हैं ।” भरत की बात सनते ही मरुदेवी का विचार-प्रवाह बदल जाता है, वह ब्रैराग्य की घारा में बह जाती है--क मैं तो सोचती थी ऋषभ को ब्रहत कष्ट होंगे, भरत उसको संभाल ही नहीं लेता, पर यहाँ तो बात ही दूसरी साधना ङी तेजस्विता १६




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