विज्ञान तकनीकी और पर्यावरण 2001 | Vigyan Takniki And Paryavaran-2001

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Vigyan Takniki And Paryavaran-2001 by प्रेमचन्द्र श्रीवास्तव - Premchandra Srivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक स्पष्टें भूल होगी क्योंकि हम पाते हैं कि सैंधव सभ्यता के निर्माता अप॑ने नगरों व॑ कस्बों में नागरिकों के स्वास्थ्य एवं समस्त परिवेश को श्रदुंषणमुक्त रखने की दिशा में अनन्यतम सचेतन थे । नगर को स्वच्छ रखने, तरण-पुष्करों का निर्माण करने, अन्तः प्रवाह तालियों का निर्माण करने सम्बन्धी मामलों में वे समकालीन विश्वमे सर्वाग्रणीये। सैधव नगरों यथा हड़प्पा, मोहेन जोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, कोटदीजी के पुरावशेषों ने वैदिक লাভ:লঘীল सन्दर्भों को पर्याप्तरूपेण प्रमाणित किया है । प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों, विशेषतः आयु्वंद के आचार्यों ने प्रदूषण की समस्या पर व्यापक एवं विन्ञान-सम्मत्त चर्चा की है। इस प्रकरण को खंक्षेपर में प्रस्तुत करने की दृष्टि से केवल महर्षि चरक द्वारा प्रतिपादित निष्कर्षों का उल्लेख यहाँ समीचीन होगा । आचार्य चरक के विचार जहाँ एक ओर क्रमबद्ध एवं व्यावहारिक हैं, वहीं दूसरी ओर दार्श- निक एवं मनोविश्लेषणात्मक भी । आपुर्वेद' प्राचीन भारतीय स्वास्थ्य-विज्ञान है। उनके अनुसार स्वास्थ्य शरीरस्थ चिदोषो, अग्नियों, मलो, क्रियाओं, बन्तःकरण की दृत्तियों आदि क मध्य समता अथवा सनन्‍्तुलन का ही अन्य नाम है जो आत्मा, इन्द्रिय और मन को प्रसन्नता द्वारा अभिव्यक्त हता दै- समः दोपः समाग्निश्च समः धातुः मलक्रियः | प्रसन्नात्मेन्द्रयमना स्वस्थमिति विधीयते 11 (सुश्रुत संहिता) दोर्षादिकों के सास्य को आरोग्य एवं उनके वैषम्य का रोग साचा गया है-- रोगस्तु दोषर्वैषम्यं दोषसाम्यमरोगता । ‹चरक संहिताः आचय पुनवेघु आच्नेय कै आधार पर व्यष्टि पूरुष का साम्य प्रस्तुत करती है । पुरुष की ही भाँति लोक होता है । पुरुष ओर लोक पुरुष (ब्रह्माण्डीय शरीर) की संरचना एक समान ही होती है । जितने भाव पुरुष में होते हैं, उतने ही लोक में होते हैं । उस लोक-पुरुष की पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश एवं अव्यक्त ब्रह्म (चेतना) नामक षपड्धातुएँ ठीक वैसी ही होती हैं जँसी कि हमारे शरीर में होती हैं। लोक का शरीर पृथ्वी, जलीय तत्व, अग्नि तत्व, प्राणवायुं तत्व, हिद्र-समुहं अकाश भौर अन्तरात्मा ब्रह्म होती है। पुरषोऽयं लोकसंमितः इत्युवाच भगवान पुनवंसुसात्रेयः । यावन्तो हि लोके (मूर्ति मन्तो) भावेविश्चेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुखषे तावन्तो लोकं “---- “1 ৯৫ ১৫ > तस्य पुरुषस्य पृथिवी सुतिः; अपकक्लेदः, तेजो अभिषंतापो, वायु प्राणः, वियत्‌ सुषिराणि, ब्रह्म अन्तरात्मा' '******' | (चरक संहिता, शारीर स्थानम्‌, अ० 5|1-5) चरक निष्कर्ष निकालते हैं कि मनुष्य के शरीर में जो स्थान रोग का है, वही लोक- समित पुरुष में प्रदूषण का है। पी० कुदुश्बिह (?. 17717710188) इस प्रकरण का सार 'एच्शियन्ट इण्डियन मेडिसिन में निम्त प्रकार प्रस्तुत करते हैं--- 14 दिसम्बर 1987 © “विज्ञान, तकनीकी और पर्यावरण 2001' संगोष्ठी & 15




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